मुख्य परीक्षा लेखन अभ्यास – Modern History Gs Paper 1/Part 08

Sansar LochanGS Paper 1 2020-21

1919 से 1947 ई० तक का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन काल ‘गाँधीयुग’ के नाम से विख्यात है.” राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में गाँधीजी के योगदान की संक्षिप्त चर्चा करें.

उत्तर :-

इस दौरान गाँधी ने राजनीति के अतिरिक्त सामाजिक क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. वे सत्य और अहिंसा के पुजारी थे. इस नए और अमोघ अस्त्र के द्वारा वे ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति को पराजित करने में सफल हो सके. अहिंसा को वे निर्बलों का नहीं बल्कि सबलों का हथियार मानते थे. गाँधीजी राजनीति में रहते हुए भी नैतिक मूल्यों को हमेशा ही महत्त्व देते थे. उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को आतंकवादियों और क्रांतिकारियों के हाथ से निकालकर सामान्य जन को सौंप दिया. वे हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे. सांप्रदायिक सद्भाव पैदा करने के लिए वे अपनी जान भी जोखिम में डाल देते थे. समाज-कल्याण के लिए उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रम बनाए. सामाजिक क्षेत्र में उनका सबसे महत्त्वपूर्ण काम अछूतों एवं दलितों (हरिजनों) का उद्धार करना था जो सदियों से सवर्णों द्वारा सताए जा रहे थे. उनके प्रयासों के फलस्वरूप अस्पृश्यता समाप्त हुई.

गाँधीजी ने स्त्रियों की दशा में भी सुधार लाने का प्रयास किया. वे बाल-विवाह के विरोधी एवं विधवा-पुनर्विवाह के समर्थक थे. दहेज की प्रथा एवं पर्दा-प्रथा को भी वह एक अनावश्यक बुराई समझते थे. वह नशाबंदी के भी पक्ष में थे. वे भारत में सच्चे अर्थ में ‘रामराज्य’ स्थापित करना चाहते थे. उनकी मृत्यु से न सिर्फ भारत बल्कि समूचे एशिया और विश्व को आघात पहुँचा. दुःख की बात है कि अहिंसा का पुजारी ही हिंसा का शिकार बना.

गाँधी के कार्यों की आलोचना समय-समय पर अनेक व्यक्तियों ने की है. अपने सहयोगियों से भी उनके मतभेद चलते रहते थे. अनेक काँग्रेसजनों को उनकी नीतियों एवं उनकी सफलता में संदेह रहता था. अनेक बार गाँधी को अपनी घोषित नीतियों एवं कार्यक्रमों से पीछे हटना पड़ा . इसीलिए, कुछ आलोचक गाँधी को “एक असंभव आदर्शवादी’ मानते हैं. “उनकी सफलताएँ अनेक विफलताओं से प्रतिसंतुलित हो जाती हैं.” गाँधी की दक्षिण अफ्रीका की नीति का कोई स्थायी परिणाम नहीं निकला. 1920 ई० का असहयोग आंदोलन भी निरर्थक हुआ. इससे न तो पंजाब की स्थिति में सुधार हुआ, न तुर्की के सुल्तान के अधिकारों की ही सुरक्षा हो सकी. “पूर्ण स्वराज्य” के ध्येय को लेकर आरंभ किया गया “नमक सत्याग्रह” का अंततः परिणाम गाँधी-इरविन समझौता हुआ जिसने “गाँधीजी को लालच देकर निरर्थक सहयोग और गोलमेज सम्मेलन जैसी असंभावना तक पहुँचाया.” इसी प्रकार सविनय अवज्ञा आंदोलन, ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ तथा भारत छोड़ो आंदोलन का कोई भी स्थायी एवं आशाजनक परिणाम नहीं निकला. सबसे बड़ी बात तो यह थी कि नहीं चाहते हुए भी गाँधी को भारत के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा.

गाँधी अपने जीवन के अंतिम चरण में राजनीति की मुख्य धारा से अलग हो जाने को बाध्य हो गए. काँग्रेस के लिए भी उनकी महत्ता समाप्त हो गई. इन आलोचनाओं में बहुत अधिक दम नहीं है. यह ठीक है कि उन्हें अनेक अवसरों पर विफलता का मुख देखना पड़ा; परंतु इससे गाँधी का महत्त्व कम नहीं हो जाता है. उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी कि परिस्थितियों के अनुकूल वह अपने-आपको तैयार कर लेते थे. उन्होंने भारतीय राजनीति में सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धांत को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया तथा अँगरेजी राज को निर्मूल करनें में अमूल्य योगदान दिया.

गाँधी के नेतृत्व में ही, उनके पथ-प्रदर्शन में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की. उनके सामाजिक और रचनात्मक कार्यो ने भारत का काया-पलट कर दिया. भारत से राज के प्रभावों को समाप्त करने में गाँधी के रचनात्मक कार्यों का विशेष योगदान था. इतिहासकार ताराचंद के शब्दों में, “गाँधीजी उन जाज्वल्यमान व्यक्तियों में से हुए हैं जिन्होंने मानवता को धीरे-धीरे, शायद लड़खड़ाते और रुके कदमों से, उन महान ऊँचाइयों की ओर प्रेरित किया है जहाँ हमारी दृष्टि को मानव-एकता, विश्वशांति एवं ‘सर्वेपि सुखिनः सन्तु’ का बहरंगी प्रदीप्त परिदृश्य मिलता है.”

आइन्सटाइन ने गाँधी की प्रशंसा करते हुए 1944 ई० में ही लिखा था, “वह ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिनकी सफलता किसी युक्ति पर नहीं लेकिन केवल अपने व्यक्तित्व की विश्वसनीय शक्ति पर निर्भर करती है, वह एक विजयी योद्धा हैं जिन्होंने अपनी पूरी ताकत अपने देशवासियों के उत्थान और उनकी हालत बेहतर बनाने में लगाई है. उन्होंने यूरोपीय क्रूरता का सामना सीधे-सादे मनुष्य की सौम्यता से किया है और इस प्रकार अपने-आपको उससे श्रेष्ठ स्तर पर बनाए रखा है. हो सकता है कि आनेवाली पीढ़ियाँ विश्वास न कर पाएँ कि उनके जैसा मानव इस धरती पर सशरीर उपस्थित था.” गाँधी की हत्या के साथ ही भारतीय इतिहास का एक युग समाप्त हो गया .

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मेरा नाम डॉ. सजीव लोचन है. मैंने सिविल सेवा परीक्षा, 1976 में सफलता हासिल की थी. 2011 में झारखंड राज्य से मैं सेवा-निवृत्त हुआ. फिर मुझे इस ब्लॉग से जुड़ने का सौभाग्य मिला. चूँकि मेरा विषय इतिहास रहा है और इसी विषय से मैंने Ph.D. भी की है तो आप लोगों को इतिहास के शोर्ट नोट्स जो सिविल सेवा में काम आ सकें, मैं उपलब्ध करवाता हूँ. मैं भली-भाँति परिचित हूँ कि इतिहास को लेकर छात्रों की कमजोर कड़ी क्या होती है.
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