लाभ का पद : सम्पूर्ण जानकारी

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लाभ का पद (Office of Profit) क्या है?

अनुच्छेद 102(1)(a) एवं 191(1)(a) में लाभ के पद के आधार पर निरर्हताओं/निर्योग्यताओं का उल्लेख है, किंतु लाभ के पद को न तो संविधान में परिभाषित किया गया है और न ही जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में.

प्रद्युत बोरदोलोई बनाम स्वप्न रॉय वाद (2001) में उच्चतम न्यायालय ने लाभ के पद की जांच के लिए निम्नलिखित प्रश्नों को रेखांकित किया:

  • क्या वह नियुक्ति सरकार द्वारा की गई है;
  • क्या पदस्थ व्यक्ति को हटाने अथवा बर्खास्त करने का अधिकार सरकार के पास है;
  • क्‍या सरकार किसी पारिश्रमिक का भुगतान कर रही है;
  • पदस्थ व्यक्ति के कार्य क्‍या हैं एवं क्या वह ये कार्य सरकार के लिए कर रहा है; तथा
  • क्‍या किए जा रहे इन कार्यों के निष्पादन पर सरकार का कोई नियंत्रण है.

कालांतर में, जया बच्चन बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालय ने इसे अग्रलिखित प्रकार से परिभाषित किया- “ऐसा पद जो कोई लाभ अथवा मौद्रिक अनुलाभ प्रदान करने में सक्षम हो.” इस प्रकार “लाभ के पद” वाले मामले में लाभ का वास्तव में “प्राप्त होना” नहीं अपितु लाभ ‘प्राप्ति की संभावना’ एक निर्णायक कारक है.

लाभ के पदों पर संयुक्त समिति

  • इसमें 15 सदस्य होते हैं जो संसद के दोनों सदनों से लिए जाते हैं.
  • यह केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा नियुक्त समितियों की संरचना व प्रकृति की जांच करती है तथा अनुशंसा करती है कि किन-किन पदों पर आसीन व्यक्तियों को संसद के किसी सदन का सदस्य बनने के लिए योग्य अथवा निर्योग्य माना जाए.
  • इसने लाभ के पद को निन्न प्रकार परिभाषित किया है:
  1. यदि पदस्थ व्यक्ति को क्षतिपूर्ति भत्ते के अतिरिक्त कोई पारिश्रमिक जैसे उपस्थिति शुल्क, मानदेय, वेतन आदि प्राप्त होता है.
  2. यदि वह निकाय जिसमें व्यक्ति को पद प्राप्त है;
  1. कार्यकारी, विधायी अथवा न्यायिक शक्तियों का प्रयोग कर रहा है; अथवा
  2. उसे निधियों के वितरण, भूमि के आवंटन, लाइसेंस जारी करने आदि की शक्तियाँ प्राप्त हैं; अथवा
  3. वह नियुक्ति, छात्रवृत्ति आदि प्रदान करने की शक्ति रखता है.
  4. यदि वह निकाय जिसमें व्यक्ति को पद प्राप्त है, सरंक्षण के माध्यम से प्रभाव अथवा शक्तियों का प्रयोग करता है.

निर्योग्यता के पक्ष में तर्क

  1. शक्ति-पृथक्करण के विरुद्ध: लाभ का पद धारण करके कोई विधायक, कार्यपालिका (जिनका वह भाग बन गया है) से स्वतंत्र होकर अपने कार्यो का निर्वहन नहीं कर सकता.
  2. संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना: संसदीय सचिवों के पद अथवा ऐसे ही अन्य पदों का प्रयोग राज्य सरकारों द्वारा संविधान द्वारा निर्धारित मंत्रियों की अधिकतम 15% (दिल्ली के मामले में 10%) की सीमा से बचने के साधन के रूप में किया जाता है.
  3. संरक्षण के माध्यम से शक्ति का प्रयोग: संसदीय सचिव सरकारों की उच्च-स्तरीय बैठकों में भागीदारी करते हैं. साथ ही उनकी मंत्रियों व मंत्रालयों की फाइलों तक पहुँच हर समय बनी रहती है तथा यह पहुँच उन्हें संरक्षण के माध्यम (way of patronage) से शक्ति का प्रयोग करने में सक्षम बनाती है.
  4. राजनीतिक समर्थन जुटाने के लिए तथा गठबंधन की राजनीति के दौर में मंत्री पदों के विकल्प के रूप में भी इन पदों का दुरूपयोग किया जाता है.
  5. जनहित के लिए खतरा: मंत्रियों के विपरीत संसदीय सचियों को गोपनीयता की शपथ (अनुच्छेद 239 AA(4)) नहीं दिलाई जाती. तथापि उन्हें उन सूचनाओं की जानकारी हो सकती है जिनका प्रकटीकरण जनहित के लिए हानिकारक हो, भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकता हो और यहाँ तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष भी खतरा उत्पन्न कर सकता हो.
  6. लाभ के पद से संबंधित अन्य मुद्दों में विधियों में संशोधन के माध्यम से विधायी शक्ति का स्वेच्छाचारी उपयोग, बड़े आकार के मंत्रिमंडल के कारण सार्वजनिक धन का दुरूपयोग तथा संशोधन की शक्ति के स्वेच्छाचारी प्रयोग के माध्यम से राजनीतिक अवसरवादिता सम्मिलित हैं. साथ ही विभिन्न राज्यों में इनकी भिन्न-भिन्न प्रस्थिति भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है.

निष्कर्ष

लाभ का पद ब्रिटेन से प्रेरित है किंतु ब्रिटेन में निरर्हताओं का न तो कोई सामान्य सिद्धांत है और न ही कानून के अंतर्गत ऐसे पदों की कोई विशेष सूची दी गई है. दूसरी ओर भारत में, संविधान के अंतर्गत सामान्य निरर्हताओं का उल्लेख है, जबकि संसद कानून बनाकर कुछ विशेष अपवादों को भी शामिल कर सकती है.

चूँकि लाभ के पद की न्यायिक व्याख्याएं भिन्न-भिन्न रही हैं, अत: यह मामला संसद की संयुक्त समिति को संदर्भित कर दिया जाना चाहिए ताकि वह इस बात का निर्धारण कर सके कि कौन-कौन से पद निर्योग्यता का आधार होंगे.

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