भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायक तत्त्व

Dr. Sajiva#AdhunikIndia

भारत की स्वतंत्रता एक महान ऐतिहासिक घटना है. यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में 62 वर्षों के संघर्ष का परिणाम है. अन्य देशों के स्वतंत्रता संग्राम से इसकी प्रकृति भिन्न है. यह मुख्यतः एक अहिसंक लड़ाई थी. इसने न तो प्रधानमन्त्री एटली और मजदूर दल की उदारता का परिणाम और न ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रयत्नों का परिणाम कहा जा सकता है. वस्तुतः भारतीय स्वतंत्रता विभिन्न परिस्थितियों के दबाव का परिणाम थी. 1947 तक परिस्थितियाँ ऐसी हो गयी थीं कि राजनीतिक दृष्टि से सत्ता हस्तांतरण में देरी करना संभव नहीं था.

भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायक तत्त्व

भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायक तत्त्वों की विवेचना निम्नलिखित रूप से की जा सकती है

ऐतिहासिक उद्देश्य का सिद्धांत (Historic Mission Theory)

अंग्रेजी राजनीतिज्ञों तथा लेखकों ने इस सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया है कि अंग्रेजों का भारत छोड़ने का निर्णय केवल स्वैच्छिक था और इंग्लैण्ड ने स्वयं ही भारत को स्वराज्य के लिए तैयार किया था और भारत को स्वतंत्रता देना उनके भारत में ऐतिहासिक उद्देश्य का सम्पन्न होना ही था. अंग्रेजी प्रधानमन्त्री एटली ने ब्रिटिश संसद में जुलाई 1947 में भारतीय स्वतंत्रता विधेयक प्रस्तुत करते समय कहा था, “इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब राज्यों को तलवार की शक्ति से अन्य लोगों के हाथों में शासन छोड़ने पर बाध्य होना पड़ा है. बिरले ही ऐसा हुआ है कि लोग जो दूसरों पर राज्य करते रहे हो अधीनस्थ लोगों को स्वेच्छा से शक्ति का हस्तांतरण कर दें.

एटली ने अपने भाषणों में इस बात का भी उल्लेख किया कि ‘अंग्रेजों ने भारतीयों को प्रजातंत्रीय पद्धति का प्रशिक्षण दिया.’ उसने भारतीय स्वतंत्रता विधेयक के विषय में कहा था कि, ‘यह उस घटना चक्र की लम्बी शृंखला का चरम बिन्दु है. मार्ले मिण्टो, माउन्टफोर्ड सुझाव, साइमन आयोग की रिपोर्ट, गोलमेज कांफ्रेंस, 1935 का भारत सरकार अधिनियम, क्रिप्स शिष्टमंडल, तथा मंत्रिमंडलीय शिष्टमंडल यह सभी उस मार्ग के चरण हैं, जिसका अंत भारत को स्वतंत्रता देने का सुझाव है.”

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की शक्ति

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभ से राष्ट्रीय चेतना अपने चरमोत्कर्ष पर थी और 1942 का विद्रोह अत्यंत स्पष्ट शब्दों में ब्रिटेन को भारत छोड़ देने की चेतावनी ही थी. संपूर्ण देश में राष्ट्रीय जागृति व्याप्त हो गयी थी और आजाद हिन्द फ़ौज के नायकों पर अभियोग और सैनिक विद्रोह की घटनाओं ने इस राजनीतिक जागृति का परिचय दे दिया था. ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने, जो अपनी व्यवहार कुशलता और राजनीतिक दूरदर्शिता के लिए प्रसिद्ध  ऐसी स्थिति में सम्मानपवूर्क भारत छोड़ देना ही उचित समझा.

महायुद्ध के बाद इंग्लैण्ड की कमजोर स्थिति

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व इंग्लैण्ड एक प्रथम श्रेणी का राष्ट्र था, लेकिन युद्ध के परिणामस्वरूप इंग्लैंड की स्थिति बहुत निर्बल हो गयी. उसकी अर्थव्यवस्था को भीषण आघात पहुँचा था और उसकी जनशक्ति कम हो गयी थी. ब्रिटिश शक्ति के इस ह्रास के कारण ब्रिटेन इस स्थिति में नहीं रहा कि वह भारत पर नियंत्रण बनाये रखने के आर्थिक और सैनिक भार को सहन कर सके.

एशियाई नवजागरण

20वीं सदी में सम्पूर्ण एशिया अपनी लम्बी निद्रा से जाग चुका था. अब एशियावासियों ने अनुभव किया कि पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा उनको धोखे में रखकर उनका शोषण किया गया है. जब उनमें भारत की स्वतंत्रता की इच्छा उत्पन्न हुई, तब मध्य-पूर्व के देशों में उपनिवेशवाद का अंत करने  के लिए तेजी से प्रगतिशील आन्दोलन प्रांरभ हो गये. भारत इनमें सबसे अधिक प्रगतिशील हाने के कारण स्वाभाविक रूप से अग्रणी था. ब्रिटेन द्वारा भारत को दी गयी स्वतत्रंता एशियाई नवजागरण की इस प्रवृत्ति के सामने आत्मसमर्पण थी.

ब्रिटेन में भारत-पक्षीय जनमत

द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने के पहले से ही भारत के प्रति ब्रिटिश जनमत में तीव्रता से सुधार होता जा रहा था. 1935 के अधिनियम के सफल क्रियान्वयन से उनके सामने भारतीयों की राजनीतिक क्षमता स्पष्ट हो गयी थी और प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों के ब्रिटेन को दिये गये सहयोग से उन्हें ब्रिटिश लोगों के मित्र का स्थान मिल गया था. ब्रिटिश समाज के अनेक वर्गों का यह विचार हो गया था कि भारत पर ब्रिटिश नियंत्रण बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं है. 1945 के आम चुनाव में ब्रिटेन में मजदूर दल की विजय का एक कारण मजदूर दल की भारत के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नीति भी थी.  

साम्यवाद का खतरा

शनैः शनैः साम्यवाद ने भारत में प्रवेश करना शुरू कर दिया था. द्वितीय विश्व युद्ध के समय इसका प्रभाव और भी अधिक बढ़ गया. कांग्रेस के नेतृत्व में सफलता प्राप्त नहीं होते देख उससे जनता का दुराव होने लगा और वह साम्यवाद की ओर झुकने लगी. अंग्रेजों को यह डर हो गया कि शीघ्र सत्ता हस्तांतरण नहीं करने पर भारत में साम्यवाद का उदय हो सकता है. 1946 में ही शीतयुद्ध प्रारंभ हो गया था और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में ब्रिटेन अपनी विरोधी शक्तियों को प्रोत्साहित करने की गलती नहीं कर सकता थीं.

दो महान शक्तियों का उदय होना

द्वितीय विश्व युद्ध में फासिस्ट और नाजी शक्तियों तथा जापानी साम्राज्यवादी शक्तियाँ पूर्णतया परास्त हो चुकी थीं. यद्यपि आंग्ल-अमेरिकन साम्राज्यवाद विजयी हो गया था, परन्तु साम्राज्यवाद को बहुत भारी धक्का लगा. अब संसार में दो महान शक्तियाँ अमरीका और रूस के रूप में उभर चुकी थीं. रूस विशेषकर उन सभी देशों की ओर था जो स्वतंत्रता प्राप्त करने की कोशिश कर रहे थे. युद्ध काल में राष्ट्रपति रूजवेल्ट और च्यांग काई शेक ने ब्रिटेन पर भारतीय स्वतंत्रता के लिए काफी दवाब डाला. युद्ध काल के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रुमैन ने इस दबाव में वृद्धि कर दी. ब्रिटेन के द्वारा अमेरिकी सहयोग से ही विजय प्राप्त की गयी थी और युद्धोतर काल में इंग्लैंड का आर्थिक पुनरुद्धार अमेरिकी सहायता पर निर्भर था. ऐसी स्थिति में इंग्लैंड अमेरिका की अवहेलना का साहस नहीं कर सकता था.

भारतीय सेना की स्वामिभक्ति में संदेह

द्वितीय महायुद्ध काल में भारतीय सेना में विद्रोह ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को हिला दिया. आजाद हिन्द फ़ौज का निर्माण, नौसैनिक विद्रोह और भारतीय वायुसेना की हड़ताल ने ब्रिटिश सरकार को सचेत कर दिया कि भारतीय सेना पर विश्वास नहीं किया जा सकता है. दूसरी ओर अंग्रेजी सेना को भारत में रखना काफी खर्चीला था. अतः सैनिक दृष्टिकोण से भी ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में टिका रहना कठिन प्रतीत होने लगा.

ब्रिटिश राज और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

ब्रिटिश राज्य के अन्तर्गत कुछ ऐसे कार्य हुए जिनके चलते भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति में सहयोग मिला. यद्यपि उसने जान-बूझकर ऐसा प्रयास नहीं किया, फिर भी उसके कुछ कार्य भारतीय स्वतंत्रता के लिए उत्तरदायी हैं, जैसे-प्रशासकीय एकता, आवागमन तथा यातायात के साधनों का विकास और शिक्षा के माध्यम में अंग्रेजी की मान्यता. इन सब तत्वों ने भारतीयों में एकता को भावना का विकास किया. दूसरी ओर राष्ट्रीय कांग्रेस ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन को नया जीवन प्रदान किया और समस्त राष्ट्रीय शक्तियों का संचय कर उसे प्रगति प्रदान की. कांग्रेस के सफल नेतृत्व ने भारतीयों में देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम की भावनाओं को जन्म दिया. समस्त देश में राष्ट्रीयता की लहर फ़ैल गयी और भारतीय स्वतत्रंता प्राप्ति के लिए कटिबद्ध हो गये. संक्षेप में, भारतीय स्वतत्रंता लम्बे अरसे तक ब्रिटिश राज द्वारा अनजाने में तथा कांग्रेस द्वारा जानबझूकर रचित राष्ट्रीय चतेना और सामान्य उद्देश्य का स्वाभाविक तथा अवश्यम्भावी परिणाम था.

मजदूर दल की विजय तथा माउन्टबेटन योजना की स्वीकृति

युद्ध से उत्पन्न परिवर्तित स्थिति के कारण भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करना तो था ही, लेकिन सौभाग्य से मजदूर दल के हाथ में शासन की शक्ति आ जाने से हस्तांतरण की यह प्रक्रिया शीघ्र ही सम्पन्न हो गयी. सत्तारूढ़ होने  के पूर्व मजदूर नेताओं ने भारतीय समस्या को सहानुभूतिपूर्वक सुलझाने का आश्वासन दिया था और सत्तारूढ़ होने के पश्चात् उन्होंने इस आश्वासन को पूरा किया. भारतीय स्वतंत्रता के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस और मुस्लिम लीग का पारस्परिक विरोध था, लेकिन जुलाई 1947 में कांग्रेस और लीग दोनों के द्वारा माउन्टबेटन योजना स्वीकृत कर लिए जाने से सत्ता हस्तांतरण के मार्ग की यह अंतिम बाधा भी समाप्त हो गयी. परिस्थितियों के दबाव के कारण कांग्रेस ने यह समझ लिया कि भारत का विभाजन ही गतिरोध दूर करने का एकमात्र उपाय है. मुस्लिम लीग ने भी इस ‘कटें-छटें पाकिस्तान’ को स्वीकार करने की व्यावहारिकता अपना ली. सभी पक्षों द्वारा माउन्टबेटन योजना स्वीकार कर लिए जाने पर माउन्टबेटन ने भारत के विभाजन का कार्य तीन माह में पूरा कर दिया. 14 अगस्त, 1947 को भारत का दो स्वतंत्र राज्यों में विभाजन हुआ और 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ. वास्तव में, भारतीय स्वतंत्रता किसी एक तत्व का परिणाम नहीं, वरन् अनके तत्त्वों के सामूहिक प्रयत्नों का परिणाम थी. संक्षेप में, समय की गति और परिस्थितियों के दबाव के कारण भारत को स्वतंत्रता मिली.

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