[Sansar Editorial] पत्रकारिता की नैतिकता पर प्रश्नचिह्न

Sansar LochanSansar Editorial 2020Leave a Comment

भारत में प्रिंट मीडिया का व्यवस्थित इतिहास 200 वर्षों से अधिक का रहा है. हाल के सालों में टेलीविज़न पत्रकारिता का तेजी से विस्तार हुआ है. टीवी पत्रकारिता में ‘सबसे पहले खबर दिखाने’ और ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ के नाम पर ‘व्यावसायिक प्रतिबद्धता’ और ‘पेशे की बुनियादी नैतिकता’ के उल्लंघन का मामला बढ़ता ही जा रहा है और इस बढ़ती हुई संख्या को देखकर पत्रकारिता की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है.

पत्रकार हमारे देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है. उससे आशा की जाती है कि वह तथ्यों को एकत्र कर उन्हें व्यवस्थित प्रकार से आम आदमी तक पहुंचाए. वर्तमान पत्रकारिता के परिदृश्य में समाचारों की परिधि केवल घटनाओं, तथ्यों, विचारों या विवादों के विवरण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राजनेताओं, अभिनेताओं और उनकी निजी ज़िंदगी से जुड़े सारे किस्से-कहानियाँ न्यूज़ हैडलाइन की शोभा बढ़ा रहे हैं. भूमंडलीय दौर की ग्लैमरस पत्रकारिता ,राजनीति और राष्ट्रीय क्षेत्र की सीमाओं को लाँघकर अंतर्राष्ट्रीय जगत की बाज़ार मूल्य की ख़बरों को प्राथमिकता दे रही है. 

दर्शकों के लिये निष्‍पक्ष, वस्‍तुनिष्‍ठ, सटीक और संतुलित सूचना प्रस्‍तुत करने हेतु पत्रकारों को पत्रकारिता के मौलिक सिद्धांत को ध्‍यान में रखते हुए द्वारपाल की भूमिका निभाने की जरूरत को देखते हुए टेलीविज़न चैनलों के लिये आचार संहिता बनाई जानी चाहिये.

‘फेक न्यूज़’ के मामलों के प्रकाश में आने के पश्चात् और इसके द्वारा सोशल मीडिया पर विस्तृत प्रभाव पैदा करने से वर्तमान समय में टेलीविज़न समाचार चैनलों के लिये आचार संहिता का निर्माण बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है.

सनसनीखेज, पक्षपातपूर्ण कवरेज़ और पेड न्यूज मीडिया का आधुनिक चलन बन गया है. किसी भी स्थिति में राय देने वाली रिपोर्टिंग को व्याख्यात्मक रिपोर्टिंग नहीं कहा जा सकता है. व्यापारिक समूह और यहाँ तक ​​कि राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति समाचार पत्र और टेलीविज़न चैनलों का संचालन कर रहे हैं. यह चिंताजनक होने के साथ ही इससे पत्रकारिता के मूल उद्देश्‍य समाप्त हो रहे हैं. अधिकारों और कर्तव्यों को अविभाज्य नहीं माना जा सकता है. 

मीडिया को न केवल लोकतंत्र की रक्षा करने के लिये प्रहरी के रूप में कार्य करना चाहिये वरन् उसे समाज के वंचित वर्गों के हितों के रक्षक के रूप में भूमिका का निर्वहन करना चाहिये. मोबाइल फोन/स्मार्ट फोन के आने के बाद सूचनाओं का आदान-प्रदान बहुत ही तेज हो चूका है. सच कहिये तो हर स्मार्ट फोन उपयोगकर्ता एक संभावित पत्रकार बन गया है. हालाँकि इंटरनेट और मोबाइल फोन ने सूचना की उपलब्धता का लोकतांत्रीकरण किया है, परन्तु फेक न्यूज़ और अफवाहों के प्रसार की घटनाओं में भी बहुत तेजी आई है. पत्रकारों को इस प्रकार के समाचारों और नकली आख्यानों से दूर रहना चाहिये क्योंकि उनका उपयोग निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिये हमारे बहुलवादी समाज में विघटन और विभाजन पैदा करने में किया जा सकता है.

अपेक्षित परिवर्तन लाने हेतु भ्रष्टाचार और लैंगिक एवं जातिगत भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने की जरूरत पर प्रिंट मीडिया और टेलीविज़न समाचार चैनलों द्वारा  जनता की राय बनाने में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिये. इस संदर्भ में न्यूज़ मीडिया ने कई बार सकारात्मक भूमिका का निर्वहन भी किया है. ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को प्रोत्साहन प्रदान करने में न्यूज़ मीडिया ने सकारात्मक भूमिका निभाई थी.

पहले के जमाने में पत्रकारिता का अर्थ समसामयिक घटनाओं का सटीक विश्लेषण करना होता था और जहाँ लेखकों के पास विषय को गहराई से समझाने की क्षमता होती थी. लेखक पाठकों में पढ़ने-जानने की उत्कंठा भी जगाने में समर्थ होते थे.

कालांतर में टेलीविजन के दौर में स्वदेशी चैनल ‘दूरदर्शन’ आया, जो कमोबेश ऑल इंडिया रेडियो का दृश्य-श्रव्य रूपांतरण था. हालांकि, खबरें अधिकांशतः एकतरफा होती थी. फलत: दूरदर्शन का एकछत्र राज कमजोर हुआ और फिर हमारे समक्ष निजी चैनल आए. बाद में विदेशी चैनल भी आ धमके. आज राष्ट्रीय स्तर के हिंदी- इंग्लिश चैनलों के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं के और अंतर्राष्ट्रीय चैनल भी विद्यमान हैं.

विडंबना यह है कि अपवाद स्वरूप कुछेक ऑनलाइन वेबसाइटों और टीवी चैनलों को छोड़कर अधिकांशतः अतिरंजित खबरें प्रसारित कर रहे हैं. पहले मंत्र था—खबरें सही हों, आकलन आप जैसा चाहे करें. यह बात प्रिंट मीडिया और टीवी पर लागू थी. जबकि आज अलग-अलग चैनलों पर एक ही घटना के भिन्न रूपांतरण दिखते हैं और साथ ही अजीबोगरीब विश्लेषण. आमतौर पर पैनल विशेषज्ञों में ज्यादातर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि, सेवानिवृत्त नौकरशाह, पत्रकार और कथित विशेषज्ञ होते हैं. जानकार तो नाममात्र के होते हैं. एंकर शो का कमांडर-इन-चीफ बनकर बैठता है और चीखकर चर्चा की अगुवाई करता है और विपक्षी वक्ताओं पर हावी होकर उन्हें बोलने नहीं देता. धीरे-धीरे चैनल का स्टूडियो रणभूमि में परिवर्तित होने लगता है. अलग विचार वाले विशेषज्ञ तक को भी धमकाकर चुप करा दिया जाता है. फलत: अनावश्यक शोर से वार्ता सार्थक नहीं रह जाती.

एंकर का एक अपना राजनीतिक रुझान होता है और विशेषज्ञों का चयन वार्ता के निष्कर्षों पर प्रश्न उठाता है. पूरे वार्तालाप में सुर, शब्दावली और सामग्री इतनी गलीज होती है कि एक सभ्य नागरिक के लिए यातना जैसी होती है. दर्शकों की विचारधारा का वर्ग कार्यक्रम से जुड़ा रहता है, बाकी के अन्य संजीदा चैनलों की खोज में लग जाते हैं.

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का गैर-सरोकारी अंग बनकर रह गया है. इसका काम भ्रष्टाचार, मिथ्या सूचनाओं और फरेब को उजागर करने वाला प्रहरी बनना है. आज सोशल मीडिया को राजनीतिक स्वार्थों के लिए दुष्प्रचार और वैमनस्य बढ़ाने का हथियार बनाया जा रहा है. विकसित देशों में भी इन्हें साधन बनाकर संकीर्ण लक्ष्य साधने की कोशिश होती है. अब यह जिम्मेवारी रिवायती प्रिंट और टीवी मीडिया के कंधों पर है कि वे ईमानदार, तटस्थ रिपोर्टिंग करने वाले मूल्यों को जिंदा रखें. इतिहास में दर्ज है कि अमेरिका में मीडिया ने पूर्व राष्ट्रपति निक्सन का कच्चा चिट्ठा जाहिर कर उन्हें घुटनों पर ला दिया था. इसकी बनिस्बत काश! हमें भारतीय मीडिया के पत्रकारों के बारे में यह राय न बनानी पड़ती कि धौंसपट्टी करने को उतारू और कॉर्पोरेट घरानों से आने वाले दबावों-संकेतों से वे कठपुतली जैसा व्यवहार करने लगते हैं. क्या रिवायती मीडिया अवसर की नजाकत समझ जागेगा और हमें सच का निर्लेप चेहरा दिखाएगा? यह भविष्य ही बताएगा.

लोकतंत्र सत्ता के विभाजन के सिद्धांत पर टिका है. इसमें कानून बनाने का काम निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का है, कानून की संवैधानिकता की जांच का अधिकार न्यायपालिका का है और कानूनों के पालन की जिम्मेदारी सरकारों की है. लोकतंत्र का चौथा पाया कहे जाने वाले मीडिया की जिम्मेदारी मुद्दों को सामने लाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में योगदान देने और लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करने की है. परन्तु अब न्यूज़ मीडिआ पर उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. कहीं उसे प्रेस्टिच्यूट कहकर बदनाम किया जा रहा है तो कहीं गोदी मीडिया कह कर. अब यह समझ लेना चाहिए की आवाज उठाने में और शोर मचाने में बहुत अंतर होता है. मीडिया जगत जो स्वयं अपनी विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए प्रयास करने होंगे.

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