आज हम चन्द्रगुप्त द्वितीय यानी विक्रमादित्य (375-415 ई.) के विषय में पढेंगे. विक्रमादित्य के परिवार, उसके सिहांसन पर बैठने के समय साम्राज्य की अवस्था, उसका वैवाहिक जीवन, शक विजय, शक विजय के परिणाम, शासन प्रबंध, सिक्के, धार्मिक दशा, सामाजिक अवस्था, शासन-प्रबंध आदि के विषय में पढेंगे.
नाम और परिवार
चंद्रगुप्त द्वितीय को उसके अभिलेखों में भिन्न नामों से पुकारा गया है. साँची के अभिलेख में देवराज, वाकाटक राजा प्रवरसेन द्वितीय के अभिलेख में देवगुप्त और उसके कुछ सिक्कों पर उसे देवश्री कहा गया है. उसकी दो रानियाँ थीं – ध्रुवदेवी जिसके पुत्र कुमारगुप्त और गोविन्द गुप्त थे और कुबेरनागा जिसकी पुत्री प्रभावती गुप्ता थी, जिसका विवाह वाकाटक राजा रूद्रसेन द्वितीय से हुआ.
मथुरा, भितरी-स्तम्भ और एरण अभिलेखों से हमें ज्ञात होता है कि उसके पिता समुद्रगुप्त ने अपने जीवन-काल में ही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को अपने बहुत-से पुत्रों में से सबसे योग्य पुत्र समझकर सिंहासन के लिए चुना था.
सिंहासन पर बैठने के समय साम्राज्य की अवस्था
समुद्रगुप्त ने अपने जीवन-काल में भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करके शांति और सुव्यवस्था स्थापित कर दी थी, परन्तु पश्चिमी क्षत्रप अब भी शक्तिशाली थे. वे साम्राज्य के आर्थिक विकास में भी विघ्न-रूप थे क्योंकि विदेशों से सारा व्यापार पश्चिमी समुद्र-तट से ही होता था.
वैवाहिक संबंधों का महत्त्व
इस समय दो राजकुल शक्तिशाली थे – नागवंश और वाकाटक. नागवंश की राजकुमारी कुबेरनागा से विक्रमादित्य के विवाह के कारण यह वंश उसके पक्ष में था. चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय से करके अपनी शक्ति बढ़ा ली. वाकाटकों की स्थिति ऐसी थी कि उनकी मित्रता गुप्त साम्राज्य के लिए एक वरदान हो सकती थी और उनकी शत्रुता उसके लिए महान् संकट. इस वैवाहिक सम्बन्ध से चन्द्रगुप्त को शक विजय में बड़ी सुविधा हुई.
शक विजय
चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना पश्चिमी मालवा और सुराष्ट्र के शकों के ऊपर विजय थी. समुद्रगुप्त ने अपने राज्यकाल में पूर्वी मालवा को जीत लिया था. वहाँ से विक्रमादित्य ने शकों पर आक्रमण करने की तैयारी की. उदयगिरि दरीगृह अभिलेख में लिखा है कि चन्द्रगुप्त वहाँ स्वयं अपने विदेश और युद्ध-मंत्री वीरसेन शाब के साथ आया. उदयगिरि के अभिलेख से पता लगता है कि उस समय उदयगिरि में सनकानिक वंशीय गुप्त सामंत उपस्थित था. वाकाटक राजाओं से वैवाहिक सम्बन्ध हो जाने से भी इस विजय में सहायता मिली. यह विजय संभवतः 388 ई. से 409 ई. के बीच हुई क्योंकि सन् 388 ई. के बाद के शक सिक्के नहीं मिलते और 409 ई. के आस-पास का जो चन्द्रगुप्त द्वितीय का सिक्का मिला है उसमें शक सिक्कों की भांति यूनानी लिपि और तिथि है.
शक विजय के परिणाम
इस विजय के कारण गुप्त-साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक फैला गया. विजय के फलस्वरूप पश्चिमी देशों से व्यापार के कारण गुप्त साम्राज्य की समृद्धि बढ़ी. भारत का यह भाग, जिस पर विदेशी राज्य कर रहे थे, उनसे मुक्त हो गया. पश्चिमी देशों से विचार-विनिमय तीव्रतर गति से होने लगा. उज्जयिनी एक व्यापार का केंद्र तो था ही, अब धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी प्रमुख हो गया और वह साम्राज्य की दूसरी राजधानी बन गयी.
अन्य विजयें
दिल्ली के पास महरौली में क़ुतुबमीनार के निकट एक लौह-स्तम्भ है. इस पर “चन्द्र” नाम के एक राजा की प्रशस्ति खुदी है. उसमें लिखा है कि चन्द्र ने अपने शत्रुओं के संघ को बंगाल में पराजित किया. दक्षिण समुद्र को अपने वीर्यानिल से सुवासित किया तथा सिन्धु के सातों मुखों को पार कर वाह्लीकों को परास्त किया. इस प्रकार पृथ्वी पर एकाधिराज्य स्थापित कर उसने दीर्घकाल तक राज्य किया. अधिकतर विद्वानों का अब यही मत है कि यह चन्द्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ही है. यदि यह बात ठीक हो तो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने बंगाल पर अपना पूरा अधिकार जमा लिया और उत्तम-पश्चिम के विदेशी राजाओं को भी हराया.
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन प्रबन्ध
चन्द्रगुप्त एक कुशल योद्धा ही नहीं था अपितु एक योग्य शासक भी था. उसकी शासन-पद्धति का वर्णन गुप्त शासन-व्यवस्था के साथ किया जायेगा. फाहियान ने भी चन्द्रगुप्त के शासन की प्रशंसा की है.
उसके अभिलेखों में हमें पाँच निम्नलिखित मुख्य अधिकारियों के नाम ज्ञात होते हैं –
- सनकानिक – उदयगिरि अभिलेख में चन्द्रगुप्त के इस सामंत का उल्लेख है.
- आम्रकार्दव – साँची में विक्रमादित्य का सेनापति था. वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था.
- वीरसेन शाब – विदेश और युद्ध मंत्री. वह शैव था.
- शिखर स्वामी – मंत्री और कुमारामात्य था.
- महाराज श्री गोविन्द गुप्त – राजकुमार गोविन्दगुप्त तीरभुक्ति (तिरहुत) का राज्यपाल था.
सिक्के
चन्द्रगुप्त ने पाँच प्रकार के सिक्के चलाये. धनुष वाले सिक्कों पर एक ओर गरुड़ की आकृति है और दूसरी ओर लक्ष्मी की आकृति है. सिंहवध वाले सिक्कों पर एक ओर राजा को सिंह को मारते हुए और दूसरी ओर सिंहवाहिनी दुर्गा की आकृति है. इसमें सिंह संभवतः चन्द्रगुप्त की सुराष्ट्र-विजय का सूचक है. इसके अतिरिक्त उसने सिंहासन, छत्र और घुड़सवार वाले सिक्के भी चलाये. चन्द्रगुप्त द्वितीय के चाँदी के सिक्के शक सिक्कों के समान हैं.
फाहियान का वर्णन
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में फाहियान नामक चीनी यात्री बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने और बौद्ध धर्मग्रन्थों का संग्रह करने भारत आया. उसने लिखा है कि कुछ शहरों जैसे शान-शान और कड़ा में 4,000 हीनयान बौद्ध रहते थे. खोतन नामक शहर में दस हजार से अधिक महायान बौद्ध रहते थे. काशगर भी हीनयान बौद्धों का केंद्र था. अफगानिस्तान में 3,000 हीनयान और महायान बौद्ध थे.
भारत की धार्मिक दशा
भारत के अंदर फाहियान ने देखा कि पंजाब में बहुत-से मठ थे जिनमें लगभग 10,000 भिक्षु रहते थे. मथुरा में 20 मठ थे जिनमें 3,000 भिक्षु रहते थे. मध्य देश में ब्राह्मण धर्म का अधिक प्रचार था. वहाँ के लोग परोपकारी प्रवृत्ति के थे. राजा, अमीर और साधारण लोग सभी मन्दिर बनवाते और जमीन और मकान दान में देते. कुछ दानी बाग़ भी दान में दे देते थे. दान में बैल भी दिए जाते थे जो खेती के लिए काम में लाए जाते थे. दानपात्र लिखे जाते थे. उन दानपत्रों के नियमों का पीछे आने वाले राजा भी पालन करते थे. यात्रा करने वाले भिक्षुओं के लिए कमरों में बिस्तर, भोजन और कपड़ों की व्यवस्था रहती थी. सारिपुत्त, मोग्गलन, आनंद जैसे प्राचीन भिक्षुओं तथा अभिधम्म, विनय और सुत्त पिटक का आदर करने के लिए लोग मठ बनाते और बहुत-से परिवार भिक्षुओं के लिए कपड़े आदि की व्यवस्था करने के लिए धन इकठ्ठा करते थे. फाहियान ने लिखा है कि उस समय बौद्धधर्मावलम्बियों के अतिरिक्त अन्य लोग भी पुण्य-शालाएँ बनाते थे जिनमें यात्रियों और भिक्षुओं के ठहरने, बिस्तर, खाद्य और पेय की व्यवस्था रहती थी. इनमें सब जातियों और धर्मों के व्यक्तियों के ठहरने का प्रबंध था. पाटलिपुत्र में दो मठ थे. महायान सम्प्रदाय के मठ में एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रेवत रहता था जो बौद्ध धर्म का प्रकांड पंडित था.
सामाजिक अवस्था
फाहियान ने लिखा है कि मध्यदेश में कोई व्यक्ति किसी जीव को नहीं मारता था. वहाँ के निवासी शराब भी नहीं पीते थे. लहसुन और प्याज का भी प्रयोग नहीं किया जाता था. चांडाल शहर के बाहर रहते थे. इस देश में लोग सूअर और मुर्गियाँ नहीं रखते थे. न कोई पशु बेचता था, न कोई कसाई की दूकान थी, न बाजारों में शराब बनाने की दुकानें. मनुष्य व्यापार में कौड़ियों का प्रयोग करते थे.
उसने लिखा है कि मगध में लोग संपन्न हैं. वे परोपकार करने और अपने पड़ोसियों के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करने में एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं. धनी मनुष्यों ने नगरों में निःशुल्क अस्पताल स्थापित किये हैं. उनमें निर्धन और दीन रोगी, अनाथ, विधवा और लंगड़े-लूले आते हैं. डॉक्टर उनकी चिकित्सा करते हैं. उन्हें आवश्यकतानुसार भोजन और औषधि दी जाती है. उनके आराम का पूरा ध्यान रखा जाता है.
फाहियान ने एक रथयात्रा का वर्णन भी किया है जिसमें मनुष्य चार पहियों के पाँच मंजिल वाले रथों के जुलूस निकालते थे. इस अवसर पर ब्राह्मण लोग बौद्धों को भी बुलाते थे.
शासन प्रबंध
फाहियान ने लिखा है कि मध्य देश में मनुष्यों को अपने नामों की रजिस्ट्री नहीं करानी पड़ती. उन पर कोई प्रबंध नहीं है. वे चाहे जहाँ जा सकते और रह सकते हैं. सरकार प्रजा के हित का बहुत ध्यान रखती है. किसानों को अपनी उपज का एक भाग राजा को देना होता है. शारीरिक दंड नहीं दिया जाता. अधिकतर अपराधों के लिए केवल जुर्माने किए जाते हैं. राजा के सैनिक अंग-रक्षकों को नियत वेतन दिया जाता था.
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7 Comments on “चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य – सैनिक उपलब्धियाँ तथा तत्कालीन भारत”
Nice sir aap ke notes bhut helpful h
ss gd me selection ho jaye runing complet hai bus tyaari chal rahi hai exam ki bus Yahi dua hai selection ho jaye me garib pariwar se belong karta
hu
Polity notes ki link bhej do sir
Polity Link
Bhugol ki link bhej do sir
sansarlochan.in/geography
Soslogy nots dijiye sir