[संसार मंथन] मुख्य परीक्षा लेखन अभ्यास – Polity GS Paper 2/Part 2

Sansar LochanGS Paper 2, Sansar Manthan

[no_toc]सामान्य अध्ययन पेपर – 2

“प्रशासनिक व्यवस्था में विधान परिषद् के औचित्य पर चर्चा करें”. (250 शब्द)

यह सवाल क्यों?

यह सवाल UPSC GS Paper 2 के सिलेबस से प्रत्यक्ष रूप से लिया गया है –

“संसद और राज्य विधायिका – संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय”.

सवाल का मूलतत्त्व

इस प्रश्न में “औचित्य” शब्द है. अधिकतर छात्र इस प्रश्न को पढ़ने के बाद सोचेंगे कि उन्हें अपने उत्तर में विधान परिषद् के पक्ष में लिखना है. या कोई-कोई छात्र सोचेंगे कि विपक्ष में लिखना है. मगर “औचित्य” शब्द जोड़कर परीक्षक आपसे विधान परिषद् के अस्तित्व के पक्ष और विपक्ष दोनों के विषय में जानना चाहता है.

कोशिश यह करें कि शुरू वाले paragraph में आप इसके पक्ष में तर्क दें, उसके बाद विपक्ष में. क्योंकि शुरुआत positive चीज से हो तो परीक्षक पर impression अच्छा जमता है. वैसे भी साहित्य जगत में negative चीजों को बाद में लिखा जाता है. यह एक परम्परा है.

चूँकि विधान सभा के पक्ष में ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता, इसलिए एक-दो लाइन भी चलेगा.

उत्तर

विधान परिषद् की उपयोगिता पर अनेक विद्वानों ने अपनी शंका व्यक्त की है. वास्तव में, इसकी उपयोगिता संदिग्ध है. यही कारण है कि भारत के कुछ ही राज्यों में विधान परिषद् है. फिर भी, इसके पक्ष में अनेक विद्वान् हैं. ऐसे विद्वानों ने विधान परिषद् के पक्ष में अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं.

विधान परिषद् द्वारा अल्पसंख्यकों, विभिन्न पेशों तथा आर्थिक समूहों और वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है. विधान परिषद् में कुछ ऐसे वयोवृद्ध, अनुभवी एवं कुशल व्यक्तियों को सदस्यता दी जा सकती है जिनकी सेवा राज्य के लिए आवश्यक एवं अपेक्षित हो. किसी विषय पर जब विधान सभा में चर्चा होती है, उसी विषय पर विधान परिषद् में भी चर्चा होटी है. अधिक से अधिक चर्चा का लाभ यह हो सकता है कि सम्बंधित विषय पर नए-नए पहलू सामने आ सके हैं जो किसी कारण से विधान सभा में उभर नहीं पाए.

दूसरी तरफ कुछ विद्वानों का मानना है कि भारतीय राज्यों में विधान परिषद् का कोई वास्तविक उपयोग नहीं है, प्रत्युत् विधान परिषद् के सदस्यों को मंत्रिपरिषद में शामिल कर जनतंत्रीय सिद्धांतों का उल्लंघन किया जाता है. संविधान के निर्माताओं को भी विधान परिषद् की उपयोगिता सन्देहास्पद प्रतीत हुई थी, इसी कारण उन्होंने विधान परिषद् को ख़त्म करने का प्रावधान संविधान में रख दिया था.

विधान परिषद् अत्यंत ही निर्बल एवं शक्तिहीन सदन है. विधान सभा द्वारा पारित विधेयक विधान परिषद् द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है या परिषद् में भेजे जाने की तारीख से तीन महीने से अधिक का समय बीत जाता है या परिषद् द्वारा ऐसे संशोधन के साथ पारित होता है जो विधान सभा को मान्य नहीं है, तो विधान सभा की उसी अधिवेशन की अगली बैठक में वह विधेयक पुनः पारित होने पर विधान परिषद् में भेजा जाता है. यदि इसपर भी परिषद् उसे अस्वीकृत करती है या उन संशोधनों के साथ पारित करती है जो विधान सभा को मान्य नहीं है या एक मास तक विलम्ब करती है, तो ऐसी अवास्था में वह विधेयक जिस रूप में विधान सभा द्वारा दूसरी बार पारित हुआ था उसी रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है. इस प्रकार विधान परिषद् विधिनिर्माण में गति को अवरुद्ध करती है. राज्य विधानमंडल में केन्द्रीय संसद की तरह दोनों सदनों में मतभेद होने की स्थिति में संयुक्त बैठक की व्यवस्था नहीं की गई है.

वित्तीय विषयों में विधान परिषद् की स्थिति वही है जो राज्य सभा की है. धन विधेयक विधान परिषद् में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. वह विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता है और वहाँ से पारित होने पर विधान परिषद् के पास भेजा जाता है. विधान परिषद् 14 दिनों के अन्दर अपना सुझाव भेज देती  है और  यदि वह ऐसा नहीं करेगी तो धन विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है.

प्रशासन के क्षेत्र में भी विधान परिषद् पूर्णतः शक्तिहीन और निर्बल सदन है. वैसे तो विधान परिषद् के सदस्य भी मंत्री-मुख्यमंत्री बन सकते हैं परन्तु मंत्रिपरिषद विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी न हो कर विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होती है और विधान सभा ही मंत्रिपरिषद को अपदस्थ कर सकती है. विधान परिषद् के सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं है, जबकि विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है.

निष्कर्ष

इस प्रकार इस चर्चा में हम पाते हैं कि विधान परिषद् मात्र एक आलंकारिक सदन है जिसका विधायी प्रक्रिया में विशेष महत्त्व नहीं है. यही कारण है कि अधिकांश राज्यों में इसे समाप्त किया जा चुका है. हम कह सकते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में भारत के संवैधानिक ढाँचे में विधान परिषद् के अस्तित्व का अधिक औचित्य नहीं है.


सामान्य अध्ययन पेपर – 2

“भारत एक संप्रभुत्वसम्पन्न, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य है.” इस कथन की व्याख्या कीजिए.

यह सवाल क्यों?

यह सवाल UPSC GS Paper 2 के सिलेबस से प्रत्यक्ष रूप से लिया गया है –

“भारतीय संविधान – ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना “.

सवाल का मूलतत्त्व

यह एक साधारण-सा प्रश्न है जिसका उत्तर सिर्फ UPSC परीक्षार्थियों को ही नहीं अपितु सभी भारतीय को जानना चाहिए. प्रत्येक देश के संविधान की कुछ विशेषताएँ होती हैं, जो वहाँ की समस्याओं और परिस्थितियों से उत्पन्न होती हैं. भारत का भी संविधान एक प्रस्तावना से आरम्भ होता है जिसमें प्रश्न में दिए दो शब्द पहले से दिए गये थे और दो शब्दों को बाद में जोड़े गये. इसलिए पहले paragraph में इसे स्पष्ट करें. उसके बाद क्रम से सभी की व्याख्या करें.

Yellow Highlighted Line >> Unique Point हैं जो आपके उत्तर को औरों से अलग बनायेंगे.

उत्तर

भारत का संविधान भारत को एक संप्रभुत्वसम्पन्न, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करता है. यह घोषणा भारत के संविधान की प्रस्तावना में ही कर दी गई है. भारत के संविधान की प्रस्तावना में पहले भारत को एक संप्रभुत्वसम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित किया गया था. लेकिन, संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम के अंतर्गत दो अन्य नए शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए – “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी”. इस प्रकार, भारत अब एक संप्रभुत्वसम्पन्न , धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया.

सम्प्रभुत्वसम्पन्न राज्य

यह सभी जानते हैं कि संप्रभुता राज्य का सबसे आवश्यक तत्त्व है. 1947 ई. में भारत स्वतंत्र हुआ और उसे सम्प्रभुता प्राप्त हुई. देश के लिए नया संविधान बना और भारत को सम्प्रभुत्वसम्पन्न राज्य घोषित किया गया. सम्प्रभुत्वसम्पन्न का अर्थ ही है कि भारत पूर्णतः स्वतंत्र है और वह किसी दूसरे देश के अधीन नहीं है. वह आंतरिक, बाह्य, आर्थिक, विदेश, गृह नीतियों को निर्धारित करने में पूर्ण स्वतंत्र है.

भारत राष्ट्रमंडल का सदस्य है. इस आधार पर बहुत-से आलोचकों ने यह आक्षेप लगाया कि भारत एक संप्रभु राज्य नहीं है. परन्तु इस आलोचना में कोई जान नहीं है. राष्ट्रमंडल की सदस्यता बनाए रखना या छोड़ देना भारत के विवेक पर निर्भर करता है.

धर्मनिरपेक्ष राज्य

संविधान में कहा गया है कि सभी नागरिकों को धर्म, विश्वास, पूजा इत्यादि में स्वतंत्रता होगी. सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है, जिससे वे अपने धार्मिक विचारों का प्रचार स्वतंत्रतापूर्वक कर सकते हैं. धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ यह नहीं है कि राज्य नागरिकों को नास्तिक या अधर्मी बनाना चाहता है. इसका अर्थ यह है कि राज्य धार्मिक मामलों में तटस्थ रहेगा और किसी धर्म के साथ पक्षपात नहीं करेगा.

भारत में धर्म के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जाता है. कुछ लोगों ने धर्म के आधार पर नौकरी में आरक्षण की वकालत की है परन्तु न्यायालय ने इस प्रकार की माँग को सदा असंवैधानिक बताया है. मुसलामानों और ईसाईयों को कुछ राज्यों में नौकरी में आरक्षण अवश्य मिला है पर यह आरक्षण उनके धर्म के नाम पर नहीं अपितु उनके पिछड़ेपन के कारण दिया गया है.

समाजवादी राज्य

भारत को पूँजीवादी देश न मानकर समाजवादी देशी माना गया. भारत को समाजवादी राज्य घोषित करने का प्रयास बहुत दिनों से होता आ रहा था. जवाहरलाल नेहरु ने समाजवादी समाज के ढाँचे (Socialistic Pattern of Society) की स्थापना का प्रयास किया था. राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व के अंतर्गत भी कुछ ऐसे सिद्धांतों की चर्चा है जिनका उद्देश्य भारत में समाजवाद के मार्ग को प्रशस्त करना है. परन्तु, संविधान के 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में “समाजवादी/socialist” शब्द जोड़कर इस उद्देश्य को और भी स्पष्ट कर दिया गया.

लोकतंत्रात्मक राज्य

भारत का शासन जनता के प्रतिनिधि चलाते हैं और राज्य की राजनैतिक सम्प्रभुता जनता में निहित है. अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था कि “प्रजातंत्र में सरकार जनता की, जनता द्वारा और जनता की भलाई के लिए होती है”. यह बात भारतीय संविधान पर पूर्णतया लागू होती है. यहाँ जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि देश का शासन जनता की भलाई के लिए करते हैं.

“संसार मंथन” कॉलम का ध्येय है आपको सिविल सेवा मुख्य परीक्षा में सवालों के उत्तर किस प्रकार लिखे जाएँ, उससे अवगत कराना. इस कॉलम के सारे आर्टिकल को इस पेज में संकलित किया जा रहा है >> Sansar Manthan

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