ब्रिटिश भारत में जाति आन्दोलन (Caste Movements)

Dr. Sajiva#AdhunikIndia2 Comments

#AdhunikIndia की पिछली सीरीज में हमने 19वीं सदी में भारतीय महिलाओं की दशा एवं स्त्री-समाज सुधारक के विषय में पढ़ा. आज हम लोग ब्रिटिश भारत में जाति आंदोलनों के विषय में पढ़ेंगे.अंग्रेजी शासनकाल में पश्चिमी शिक्षा एवं विचारधारा के सम्पर्क में आने के परिणामस्वरूप भारत में नवीन चेतना की लहर प्रवाहित हुई. इस चेतना ने न केवल ब्रिटिश औपनिवेशक शासन के शोषण-तन्त्र से हमारा परिचय कराया वरन् अपने ही देश और समाज की पुरातनपंथी एवं रुढ़िवादी प्रवृत्तियों से हमें परिचित कराने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. जातीय आधार पर विभाजन की प्रवृत्ति इन्हीं प्रवृत्तियों में से एक थी. इस क्रूर प्रवृत्ति से समाज इस तरह ऊँच-नीच की भावना से ग्रस्त हुआ कि ऊँची जातियाँ निचली जातियों को अस्पृश्य और अछूत तक मानने लगी थीं.

जाति आन्दोलन

भारत में 19वीं शताब्दी में लागू की गई ब्रिटिश नीतियाँ प्रत्यक्षतः या परोक्षत: जाति आंदोलनों को बढ़ावा देने में सहायक रही. यद्यपि अंग्रेजी शासन ने जाति विभाजन को क्षीण करने के लिए जाति निर्योग्यता अधिनियम, 1850 (Caste Disabilities Removal Act, 1850) एवं विशेष विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1872 (Special Marriage Act, 1872) जैसे प्रावधान लाये, तथापि 1857 ई. के विद्रोह के बाद भारतीय समाज के प्रति अपनाई गई कंपनी की अहस्तक्षेप की नीति ने इस स्थिति को ज्यों-का-त्यों रहने दिया. बाद में तो अंग्रेजों ने “फूट डालो और शासन करो” (Divide and Rule) की नीति अपनाए हुए साम्प्रदायिक भेदभाव की तर्ज पर जातिगत भेदभाव की प्रवृत्ति को बढ़ावा ही दिया. 1901 ई. की जनगणना के बाद ब्रिटिश सरकार ने सामाजिक मान्यताओं के आधार पर दर्जे या स्तर को स्वीकार किया. इससे अलगाववादी प्रवृत्ति और जातियों के बीच संघर्ष को अनुचित बढ़ावा मिला.

प्रशासनिक एकरूपता और भौगोलिक एकीकरण भी अंग्रेजों के कुछ ऐसे कदम थे जो जाति आन्दोलनों के सूत्रपात में सहायक रहे. संचार एवं रेल-व्यवस्था ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों के बीच सम्पर्क को बढ़ावा दिया, जिससे जाति आन्दोलन की चेतना को विभिन्न क्षेत्रों में फैलने में सहायता मिली.

विश्लेषण करने स्पष्ट होता है कि उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में जाति आन्दोलनों की स्थिति अधिक व्यापक एवं मजबूत रही. चूँकि दक्षिण भारत में वर्ण-व्यवस्था का विशिष्ट स्वरूप विद्यमान था. अतः ऐसा होना स्वाभाविक ही था. दक्षिण भारत में सामन्यतः उच्च (ब्राह्मण) और निम्न (अछूत) दो ही वर्ग थे. मध्यवर्गीय जातियों के अभाव में टकराव प्रत्यक्षतः सीधे-सीधे होता था. अत्यधिक कठोर जातीय एवं कर्मकांडीय शुद्धता ने दक्षिण भारत में इन आन्दोलनों को मजबूत स्थिति प्रदान की.

जाति आन्दोलनों की प्रकृति (Nature of Caste Movements)

जाति आन्दोलनों की प्रकृति सुधारात्मक थी. ये जाति-व्यवस्था के अंतर्गत निम्न जातियों की वर्तमान स्थिति में सुधार के लिए ही चलाये गये आन्दोलन थे. वैसे इस उद्देश्य से अनेक आन्दोलनकारी संस्थाओं द्वारा सुधार कार्यक्रम भी चलाये गये. इनमें शिक्षा का प्रसार, महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार आदि प्रमुख थे. कुछ जाति आन्दोलनों का स्वरूप क्रांतिकारी भी था. इन आंदोलनों ने परम्परागत सामाजिक व्यवस्था को पूर्णतः नकारते हुए आमूलचूल परिवर्तन पर बल दिया. इसलिए उन्होंने धर्मशास्त्रों व ब्राह्मणों का भी विरोध किया. भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिबा फूले आदि के आन्दोलनों में ये सभी विशेषताएँ विद्यमान थीं.

जाति आन्दोलनों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी रही कि इनका स्वरूप लोकतान्त्रिक था. सामाजिक समता, समानता एवं मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा पर बल देने वाले इन आन्दोलनों ने अवर्णों तथा स्त्रियों के अधिकारों हेतु संघर्ष किया व उनकी स्वतंत्र स्थिति बहाल करने का प्रयास किया. इनके परिणामस्वरूप धार्मिक संस्थानों, मंदिरों एवं सार्वजनिक स्थलों में निचली जातियों के प्रवेश के लिए तो अनेक अभियान चलाये ही गये. साथ ही साथ निम्न जातियों के लिए आरक्षण एवं रियायतों की भी बात उभरकर सामने आने लगी.

जाति आन्दोलनों का रवैया ब्रिटिश शासन के प्रति समर्थनवादी था. अंग्रेजी शासन के स्वरूप की ठीक से पहचान न होने के कारण उसके प्रति इन आन्दोलनों की आस्था एवं श्रद्धा देखी जा सकती थी. जाति आन्दोलनों के नेताओं को यह भ्रम था कि अंग्रेजी सरकार द्वारा एक नयी प्रगतिशील व्यवस्था की संभावना बढ़ेगी जो उन्हें दासता से मुक्ति दिला सकेगी, ऐसा संभव नहीं हुआ. इसलिए इस सोच को नकारात्मक सोच माना जाता है.

संभवतः इसलिए इन आन्दोलनों का जुड़ाव भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन से नहीं रहा और ये कांग्रेस से भी अलग-अलग ही रहे. वस्तुतः इन आन्दोलनों के नेताओं में राष्ट्रवादी चेतना की कमी थी. वैसे कांग्रेस भी समानता, स्वतंत्रता, जाति-भेद समाप्ति और दासता मुक्ति की ही बात कर रही थी. इस प्रकार दोनों के उद्देश्य एक जैसे ही थे. अतः इन आन्दोलनों को “समानान्तर आन्दोलनों” की संज्ञा दी जा सकती है.

प्रमुख जाति आन्दोलन (Major Caste Movements)

सत्यशोधक समाज

महात्मा ज्योतिबा फूले महाराष्ट्र में “अछूतोद्धार” व “महिला शिक्षा” का कार्य आरम्भ करने वाले पहले व्यक्तियों में से एक थे. दलितों तथा वंचित वर्गों को न्याय दिलाने के लिए 24 सितम्बर, 1873 को इन्होने सत्यशोधक समाज की स्थापना की. ज्योतिबा फूले ने ब्राहम्ण-पुरोहित के बिना ही विवाह संस्कार आरम्भ कराये तथा मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा इन्हें मान्यता दिलाई. महाराष्ट्र में अस्पृश्यता, महिला शिक्षा तथा सामजिक समता के लिए संघर्ष करने वाले ज्योतिबा फूले अग्रगण्य सामाजिक कार्यकर्ता थे. अपने क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के लिए ज्योतिबा फूले ने “गुलामगिरि” और “सार्वजनिक सत्यधर्म” नामक पुस्तक की रचना की. उन्होंने “दीनबंधु” नामक पत्र भी निकाला.

श्रीनारायण धर्म परिपालन आन्दोलन

नारायण गुरु के नेतृत्व में स्थापित इस आन्दोलन का लोकप्रिय नाम एझाव आन्दोलन (Ezhava Movement) था. यह केरल की एझावा जाति द्वारा शुरू किया गया आन्दोलन था.पारम्परिक रूप से निम्न श्रेणी की यह जाति नारियल की खेती से जुड़ी थी. इस जाति के सदस्यों के मंदिरों एवं सार्वजनिक जगहों में प्रवेश की माँग को लेकर यह आन्दोलन आरम्भ हुआ. 1920 में इसका सम्बन्ध गाँधीवादी राष्ट्रीय आन्दोलन से स्थापित हुआ तथा कालांतर में इन्होंने साम्यवादियों का प्रबल समर्थ किया.

महार आन्दोलन

19वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के अछूत महारों द्वारा चलाया गया “महार आन्दोलन” का नेपाल गोपाल बाबा मावलंकर ने किया. उन्होंने स्वयं को “क्षत्रिय” घोषित करते हुए सेना एवं सिविल सेवाओं में अधिक नौकरियों की माँग की. इसके बाद 1920 से इसका नेतृत्व डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सम्भाला. इस आन्दोलन के अंतर्गत तालाबों, मंदिरों एवं सार्वजनिक परिसंपत्तियों के उपयोग की माँग के अलावा महारों द्वारा गाँव के मुखिया के घर पारम्परिक रूप किये जाने वाला सेवा-कर्म “महार वेतन” को समाप्त करने की माँग की गई. ऐसा माना जाता है कि अम्बेडकर के सामाजिक सुधार राजनीतिक अभिप्राय से जुड़े थे. उन्होंने दलितों के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को राजनीतिक स्वरूप प्रदान करने के लिए भी संघर्ष किया. गाँधीजी एवं कांग्रेस की नीतियों से अलग उन्होंने दलितों को सामूहिक पहचान देने का काम किया एवं उन्हें राजनीतिक शक्ति के रूप में भी बदलना चाहा.

आत्मसम्मान आन्दोलन (Self-Respect Movement)

ई.वी. रामास्वामी नायकर उर्फ़ पेरियार ने 1925 ई. में तमिलनाडु में आत्मसम्मान आन्दोलन का सूत्रपात किया. सामाजिक न्याय और गैर-ब्राह्मणों के प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर 1925 ई. में नायकर ने कांग्रेस छोड़ दी. इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य गैर-ब्राह्मण समुदाय को जाग्रत करना था. इसकी पृष्ठभूमि में धर्म एवं धर्म-ग्रन्थों के उन सिद्धांतों को अस्वीकार किया गया जिनसे सामाजिक विषमता बढ़ती है और गैर-सवर्णों तथा स्त्रियों की दशा ख़राब होती है. इस तरह इस आन्दोलन ने धर्म के विरुद्ध तो लड़ाई लड़ी ही साथ ही साथ तार्किक आधार पर समाज के पुनर्गठन की वकालत भी की.

जस्टिस पार्टी

उपर्युक्त क्रम में ही 1916 ई. में मद्रास के गैर-ब्राह्मण नेताओं, जैसे – टी.एम. नायर, पी. त्यागराज चेट्टियार और सी.एन. मुदलियार ने दक्षिण भारतीय उदारवादी महासंघ (South Indian Liberal Federation – SILF) की स्थापना की. इस संघ ने “जस्टिस” नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया. इसी पत्र की लोकप्रियता के नाम पर इसका नाम “जस्टिस पार्टी” पड़ा. यह आन्दोलन भी मुख्य रूप से गैर-ब्राह्मणों पर केन्द्रित था, लेकिन यह उच्च जाति के समृद्ध भूस्वामियों तथा व्यापारियों तक ही सीमित था जिन्होंने शिक्षा, सेना एवं राजनीति के स्तर पर ब्राह्मणों के वर्चस्व का पुरजोर विरोध किया. सरकारी नौकरियों में गैर-ब्राह्मणों के लिए आरक्षण की माँग भी इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण कदम था.

कांग्रेस और हरिजन आन्दोलन

गाँधीजी के राष्ट्रीय आन्दोलन के पदार्पण के पश्चात् कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये. कांग्रेस ने जाति प्रथा जैसी बुराई को समाप्त करने हेतु कई प्रस्ताव पारित किये. 1931 ई. के कराची अधिवेशन में जाति निरपेक्ष, आर्थिक एवं मौलिक अधिकारों का प्रस्ताव पारित किया गया. 1932 ई. में गाँधीजी ने अखिल भारतीय अस्पृश्यता लीग (All India Untouchability League) की स्थापना करते हुए छुआछूत को जड़ से मिटाने की वकालत की. आगे चलकर उन्होंने इसका नाम “हरजन सेवक संघ” रख दिया. गाँधीजी ने “हरिजन” नामक एक पत्रिका भी प्रकाशित की जिसमें प्रतिमाह उन विद्यालयों, मंदिरों और कुँओं की सूची जारी की जाती थी जिन्हें अछूतों के प्रयोग के लिए खोल दिया जाता था.

आपको इस सीरीज के सभी पोस्ट इस लिंक में एक साथ मिलेंगे >> #AdhunikIndia

Print Friendly, PDF & Email
Read them too :
[related_posts_by_tax]

2 Comments on “ब्रिटिश भारत में जाति आन्दोलन (Caste Movements)”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.