अकबर की Rajput Policy और उसकी समीक्षा

Dr. SajivaHistory, Medieval History10 Comments

आज के इस पोस्ट में हम अकबर की राजपूत नीति (Rajput Policy/niti) की चर्चा और समीक्षा करेंगे.

भूमिका

भारतीय समाज और इतिहास के निर्माण में राजपूतों का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण था. राजपूत वीरता, साहस, स्वाभिमान, स्वतंत्रता में अद्वितीय माने जाते थे. स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के नाम पर वे कटने-मरने के लिए तैयार रहते थे. पूर्व के तुर्क सुल्तानों के द्वारा राजपूतों को नियंत्रण में लाने की सारी चेष्टाएँ विफल रही थीं. युद्ध में मात खा जाने के बावजूद राजपूत तुर्कों या मुगलों की संप्रभुता को आसानी से स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. बाबर ने खानवा के युद्ध में राजपूतों के प्रमुख सरदार राणा संग्राम सिंह को पराजित किया था, किन्तु सांगा की पराजय के बावजूद राजपूताना में अनेक शक्तिशाली राज्यों का उदय हो चुका था. ये राज्य आपस में बंटे हुए थे, परन्तु धर्म एवं संस्कृति की दृष्टि से वे एक सूत्र में बँधे हुए थे.

Akbar’s Rajput Policy

अकबर स्वयं दूरदर्शी था. वह राजपूतों की शक्ति को अच्छी तरह से पहचानता था. राजपूत हिंदू साम्राज्य की स्थापना के नाम पर अन्य हिंदू शासकों को संगठित कर मुग़ल साम्राज्य की सुरक्षा को खतरे में डाल सकते थे. संभावित खतरे को दूर करने के उद्देश्य से अकबर ने राजपूतों के साथ मित्रता, उदारता, सहयोग और वैवाहिक सम्बन्ध की नीति अपनाकर उन्हें शत्रु के बदले मित्र बनाने का निर्णय लिया.

साँप भी मरे और लाठी भी नहीं टूटे

अकबर ने राजपूतों के साथ “साँप भी मरे और लाठी भी नहीं टूटे” की नीति अपनाई थी. उसने राजपूत राज्यों को स्वाधीन रखकर एक ओर यदि उनके स्वाभिमान की रक्षा की तो दूसरी ओर मुग़ल साम्राज्य की संप्रभुता स्वीकार करवाकर उन्हें अपना सहायक भी बना लिया. उसने राजपूतों को मुग़ल सेना और प्रशासन में ऊँचे-ऊँचे पदों पर नियुक्ति का अवसर दिया. राजपूतों ने मुगलों के साथ कंधा-से-कंधा मिलाकर मुग़ल साम्राज्य के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. वे मुगलों के प्रति स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करने लगे.

अकबर – एक कुशल कूटनीतिज्ञ

अकबर एक कुशल कूटनीतिज्ञ था. अपने शासनकाल के प्रारम्भिक दिनों में वह तुर्क अमीरों के स्वार्थपूर्ण व्यवहार का कटु अनुभव प्राप्त कर चुका था. तुर्क सरदारों में यह धारणा घर कर गयी थी कि वे मुग़ल साम्राज्य की सुरक्षा और विस्तार के लिए एकमात्र आधार-स्तम्भ हैं. अकबर तुर्कों के सहयोग के बल पर बहुसंख्यक हिंदी-भाषी क्षेत्र में मुग़ल साम्राज्य की नींव को सुदृढ़ नहीं कर सकता था. तुर्कों की धोखाधड़ी से बचने के लिए वह राजपूत सरदारों की सेवा का प्रयोग ढाल के रूप में करना चाहता था. राजपूत सरदारों का सहयोग प्राप्त कर वह मुस्लिम अमीरों की महत्त्वाकांक्षा और शक्ति पर नियंत्रण रखना चाहता था. दूसरे शब्दों में, अकबर की राजपूत नीति (Akbar’s Rajput Policy) उसकी अद्वितीय प्रतिभा, दूरदर्शिता और कुशल कूटनीतिज्ञता का परिचायक था.

अकबर की राजपूत नीति का कार्यान्वयन

आमेर के साथ मैत्री सम्बन्ध

आमेर कछवाहा राजपूतों का राज्य था. अकबर के समय आमेर का शासक बिहारीमल या भारमल था. आमेर का राज्य गृह-युद्ध से आक्रान्त था. भारमल का भतीजा सूजा मेवाड़ के सूबेदार मुहम्मद शर्फुद्दीन की सहायता से आमेर का शासक बनना चाहता था. पड़ोस के मारवाड़ राज्य के साथ भारमल का सम्बन्ध अच्छा नहीं था. ऐसी स्थिति में भारमल मुगलों की सैनिक सहायता प्राप्त कर अपनी रक्षा करना चाहता था.

1562 ई. को अकबर ने अजमेर की यात्रा की. वह ख्वाजा मुईनद्दीन चिश्ती के मजार पर श्रद्धांजली अर्पित करना चाहता था. भारमल ने इस अवसर का लाभ उठाने के उद्देश्य से सागनेर नामक स्थान में अकबर से भेंट की और मुगलों की संप्रभुता स्वीकार कर ज्येष्ठ पुत्री जोधा का अकबर के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा. अकबर ने भारमल के प्रस्ताव को स्वीकार कर उसकी पुत्री से विवाह कर लिया. मुग़ल सेना से भारमल को पाँच हजार का मनसब मिला और उसके पुत्र भगवान् दास और पोता मानसिंह को मुग़ल सेना में ऊँचे पद पर नियुक्त किया गया.

मेड़ता विजय

मेड़ता का शासक राय मालदेव था. मेड़ता का दुर्ग रायमल के सेनापति जयमल के नियंत्रण में था. मेड़ता पर विजय करने के लिए अकबर ने शर्फुद्दीन को अधिकृत किया. शर्फुद्दीन के साथ युद्ध में जयमल के सैनिकों ने वीरता दिखाई. किन्तु अंत में जयमल चित्तौड़ भाग गया और 1562 ई. में मेड़ता का दुर्ग मुगलों के अधिकार में आ गया.

गोंडवाना विजय

गोंडवाना का राज्य आधुनिक मध्यप्रदेश में जबलपुर के पास था. पहाड़ और जंगलों के बीच स्थित गोंडवाना का अथवा गढ़पतंगा के दुर्ग पर अबतक किसी मुसलमान शासक के द्वारा आक्रमण नहीं किया गया था. गोंडवाना का शासक वीर नारायण था. उस समय वीर की उम्र कम थी इसलिए महोवा के चंदेल वंश की राजकुमारी दुर्गावती (जो वीर नारायण की माँ थी) संरक्षिका के रूप में 15 वर्षों से गोंडवाना का शासन संभाल रही थी. रानी दुर्गावती वंश परम्परा के अनुकूल अत्यन्त उद्यमी, योग्य और वीर थी. प्रजा के बीच वह अत्यंत लोकप्रिय थी. अकबर गोंडवाना की चिर संचित संपत्ति को प्राप्त करना चाहता था इसलिए उसने आसफ खां को गोंडवाना पर आक्रमण करने के लिए 1564 ई. में भेजा. नरही और चौरागढ़ की दो लड़ाइयों में दुर्गावती ने मुग़ल सैनिकों के साथ अपनी वीरता का परिचय दिया. किन्तु तीर से घायल हो जाने पर पराजय की संभावना को देखते हुए उसने आत्महत्या कर ली. वीर नारायण भी युद्ध में मारा गया. गोंडवाना-विजय से मुगलों को अपार धन की प्राप्ति हुई. सदियों का संचित धन आसफ खां के हाथ लग गया. एक सौ सोने के सिक्के का घड़ा प्राप्त हुआ था. बहुमूल्य मोती, आभूषण, सोने की मूर्ति आदि मुगलों को प्राप्त हुए. गोंडवाना पर आक्रमण करने का कोई नैतिक आधार नहीं था. अकबर ने धन-प्राप्ति एवं अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने के उद्देश्य ही अकारण गोंडवाना पर आक्रमण किया और वीर रानी की मौत का कारण बना.

अकबर की राजपूत नीति की समीक्षा

इसमें कोई शक नहीं कि अकबर साम्राज्यवादी था. वह भारतवर्ष के अनेक छोटे-बड़े राज्यों पर अधिकार कर मुगलों का एकाधिपत्य भारत में कायम करना चाहता था. साम्राज्य का विस्तार और निर्माण मात्र तुर्कों के सहयोग से संभव नहीं था. भारतवर्ष में हिंदुओं की संख्या अधिक थी. हिंदुओं में राजपूत वीरता और साहस के लिए जाने जाते थे. मुगलों के विकास के रास्ते में राजपूतों का असहयोग अभिशाप बन सकता था और उनका सहयोग वरदान हो सकता था. अतः अफगान शक्ति को नष्ट कर अकबर लड़ाकू राजपूतों के साथ जो उदारता या सहिष्णुता की नीति अपनाई थी उसके पीछे उसकी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति काम कर रही थी. अकबर किसी भी राज्य की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करता था. वह भारतीय राज्यों को मुग़ल की संप्रभुता स्वीकार करवाने के लिए सब कुछ करने को तैयार था. किन्तु अपने पूर्वजों की तरह वह धर्मान्ध नहीं था. उसने राजपूतों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध कायम कर उनकी शत्रुता को मित्रता का जामा पहना दिया. राजपूत मुग़ल साम्राज्य के लिए स्तम्भ के रूप में काम करने लगे. राजपूतों की नियुक्ति सेना और प्रशासन में महत्त्वपूर्ण पदों पर  की गई. वे तुर्क सरदारों के समकक्षी हो गए. इससे अकबर को दोहरा लाभ हुआ. एक तो राजपूत वचन के पक्के होते थे. उनकी स्वामिभक्ति पर संदेह नहीं किया जा सकता था और दूसरा उनके सहयोग से अकबर अन्य राजाओं पर विजय प्राप्त करने में सफल हुआ. इसके अतिरिक्त तुर्क सेना एवं सरदारों का एकाधिपत्य भी नष्ट हो गया और वे अकबर के विरुद्ध षडयंत्र करने में असफल रह गए.

खैर, इस सन्दर्भ में आपका क्या विचार है? अकबर क्यों राजपूतों के साथ मैत्री और वैवाहिक सम्बन्ध बनाना चाहता था? क्या थी Akbar की Rajput Policy के पीछे बड़ी वजह? कृपया अपना विचार कमेंट में साझा करें.

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10 Comments on “अकबर की Rajput Policy और उसकी समीक्षा”

  1. कृपया BPSC MAINS के लिये इतिहास के कुछ प्रश्नों का चयन कर नोट बनाये।

  2. Awesome help for Hindi medium aspirants…thanks a lot sansarlochan team…
    Please sir aajadi ke baad Bharat ke liye bhi materials provide kijiye…. please… great work…thanks again

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  4. अकबर एक योग्य शासक के साथ-साथ मह्यवाकांक्षी कट्टर मुस्लिम भी था।दिन ए इलाही धर्म (के अनुयायी) एक तलवार के जोर पर भविष्य का मुस्लिम भी था जो अकबर के साथ ही समाप्त हो गया।अकबर की राजपूत नीति ने नई सामाजिक संरचना को जन्म दिया जिससे आने वाले सशक्त शासकों ने जारी रखा वो थी उर्दू भाषा और इस्लाम।उसने भारतीय भाषा और धर्म अपनाने की कोशिश नही की।उत्तरवर्ती हिन्दू शासको को अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए बीच का रास्ता निकलना पड़ा और धीरे धीरे धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त आया।

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