वारेन हेस्टिंग्स का चरित्र, शासनकाल और घटनाएँ

Sansar Lochan#AdhunikIndia

#AdhunikIndia की पिछली सीरीज में हमने क्लाइव के दूसरी बार शासन (1765-67) के विषय में पढ़ा. रॉबर्ट क्लाइव के शासन-सुधार, उसके चरित्र और रॉबर्ट क्लाइव का इंग्लैंड लौटने के बाद उसके मृत्यु कैसे हुई, के बारे में जाना. इस पोस्ट में हम क्लाइव के जाने के बाद बंगाल की दशा के बारे में पढ़ेंगे और जानेंगे बंगाल के नए गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स के बारे में.

इस पोस्ट में हमने वारेन हेस्टिंग्स के बारे में आपसे जानकारी साझा की है. साथ ही साथ रूहेला युद्ध और रेग्यूलेटिंग एक्ट के बारे में भी जानेंगे जो उसके ही कार्यकाल की दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं.

भूमिका

क्लाइव के इंग्लैंड लौट जाने के बाद Harry Verelst और Cartier बंगाल के गवर्नर नियुक्त हुए. वे साधारण योग्यता के मनुष्य थे. इन पाँच वर्षों के अंदर दोहरे शासन प्रबंध के दोष स्पष्ट दिखाई देने लगे. बंगाल का आधा प्रबंध कम्पनी के हाथ में था और आधा नवाब के. इस प्रकार प्रबंध का दायित्व दोनों पर बंटा था. लेकिन असल में इससे बड़ी गड़बड़ी होती थी. कार्यकाल की अवधि के निश्चित न होने से नवाब तथा कम्पनी के अफसर यथासंभव अधिक से अधिक रूपया पैदा करने की चेष्टा करते थे. क्लाइव ने जिन बुराइयों को सख्ती के साथ दूर किया था, वे फिर दिखाई देने लगीं. सन् 1769-70 ई. में बंगाल में एक भीषण अकाल पड़ा. उस समय के विवरणों से मालूम होता है कि लोग अपनी भूख मिटाने के लिए लोगों के लाशों को भी खा जाते थे. कम्पनी के नौकरों ने चावल खरीदकर इकठ्ठा कर लिया और फिर उसे अधिक दाम में बेचा. बंगाल के बाहर की राजनीतिक स्थिति भी क्लाइव के जाने के बाद बदल गई थी.

पानीपत की पराजय के बाद मराठों ने फिर अपनी खोई हुई शक्ति को प्राप्त कर लिया. अब वे उत्तरी भारत पर छापा मारने लगे. मुगल-सम्राट उनकी संरक्षकता में इलाहबाद से दिल्ली चला गया था. अवध के नवाब के साथ जो मैत्री-सम्बन्ध स्थापित था, वह शिथिल पड़ गया. किन्तु कोई झगड़ा नहीं हुआ.

[vc_row][vc_column][vc_column_text][/vc_column_text][/vc_column][/vc_row][vc_row][vc_column][vc_zigzag color=”blue”][vc_column_text][/vc_column_text][vc_single_image image=”6415″ alignment=”center” style=”vc_box_shadow_circle”][vc_column_text]

मेरा संक्षिप्त परिचय

मेरा नाम डॉ. सजीव लोचन है. मैंने सिविल सेवा परीक्षा, 1976 में सफलता हासिल की थी. 2011 में झारखंड राज्य से मैं सेवा-निवृत्त हुआ. फिर मुझे इस ब्लॉग से जुड़ने का सौभाग्य मिला. चूँकि मेरा विषय इतिहास रहा है और इसी विषय से मैंने Ph.D. भी की है तो आप लोगों को इतिहास के शोर्ट नोट्स जो सिविल सेवा में काम आ सकें, उपलब्ध करवाता हूँ. मुझे UPSC के इंटरव्यू बोर्ड में दो बार बाहरी सदस्य के रूप में बुलाया गया है. इसलिए मैं भली-भाँति परिचित हूँ कि इतिहास को लेकर छात्रों की कमजोर कड़ी क्या होती है.

बंगाल का गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स

वारेन हेस्टिंग्स 1750 ई. में, 18 वर्ष की अवस्था में, ईस्ट इंडिया कम्पनी में एक लेखक होकर आया था. 1768 ई. से 1772 ई. तक वह मद्रास-कौंसिल का मेम्बर रह चुका था. 1772-73 ई. में वह बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया. इस पद पर उसने दो वर्ष तक काम किया. उसने अनेक सुधार किए जिनसे कम्पनी की शक्ति अधिक बढ़ गयी. नवाब की पेंशन 32 लाख से घटाकर 16 लाख कर दी गई और दोहरे प्रबंध की प्रणाली उठा दी गई.

वारेन हेस्टिंग्स की विदेश नीति

अपने बाप-दादों के सिंहासन को प्राप्त करने की आशा में मुग़ल-सम्राट शाहआलम सिंधिया के संरक्षण में दिल्ली चला गया. वह पहले ही मराठों को इलाहाबाद और कड़ा के जिले दे चुका था. हेस्टिंग्स ने सोचा कि बंगाल की सीमा पर स्थित इन दो पूर्वी जिलों का मराठों के हाथ में जाना बड़ा अनिष्टकारी होगा. उसने तुरंत शाहआलाम की पेंशन बंद कर दी. कड़ा और इलाहाबाद के जिलों को उसने अवध के नवाब को लौटा दिया. इसके बदले में नवाब ने कम्पनी को 50 लाख रूपये देने का वादा किया. मुग़ल-सम्राट को 26 लाख रूपया सालाना पेंशन 1769 ई. से नहीं मिली थी. इससे अंग्रेजों की नेकनीयती पर शाहआलाम को संदेह होने लगा था. नवाब वजीर के साथ बनारस की जो संधि हुई थी उसके कारण रोहिल्ला युद्ध हुआ. इसके लिए हेस्टिंग्स की बहुत कड़े शब्दों में निंदा हुई.

रोहिल्ला युद्ध

रोहिल्ला युद्ध के लिए बाद को हेस्टिंग्स पर बड़ा दोषरोपण किया गया था इसलिए ठीक से यह जान लेना उचित है कि इस युद्ध का कारण क्या था. रूहेलखंड दोआब का एक उपजाऊ भाग है. उस समय वहाँ हाफ़िज़ रहमत खां नामक एक पठान शासन करता था. जिस प्रकार अन्य बहुत से सरदारों ने मुग़ल-साम्राज्य के कुछ भाग को दबाकर स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए थे, उसी तरह उसने भी अपना राज्य बनाया था. मराठों ने रुहेलखंड के सीमा-प्रांत पर आक्रमण किया. पठान राजा की स्थिति बड़ी भयंकर हो गई. 1772 ई. में रुहेलों ने नवाब वजीर के साथ बनारस में संधि की थी और यह तय हुआ कि यदि रुहेलों पर मराठे हमला करेंगे तो नवाब उनकी सहायता करेगा और इसके बदले में रुहेल नवाब को 40 लाख रु. देंगे. 1773 ई. में मैराथन ने रुहेलखंड पर आक्रमण किया. अंग्रेजी फौज की मदद से अवध के नवाब वजीर ने उन्हें हराकर भगा दिया. मराठों के लौट जाने पर नवाब ने 40 लाख रु. माँगा. इस पर हाफ़िज़ रहमत खां ने टालमटोल की. तब नवाब ने रुहेलों को दंड देने के लिए अंग्रेजों की सहायता माँगी. हेस्टिंग्स को उस समय रुपये की बड़ी आवश्यकता थी. इसलिए वह एक अंग्रेजी फौज देने के लिए राजी हो गया. नवाब और अंग्रेजों की संयुक्त सेना रुहेलखंड की ओर रवाना हुई और उसने रुहेलों को (23 अप्रैल, 1774 ई.) मीरनकटरा के युद्ध में पराजित किया. हाफ़िज़ रहमत अंत समय तक लड़ता हुआ मारा गया. रुहेले, जिनकी संख्या 20,000 थी, जबरदस्ती देश से निकाल दिए गये. उनका राज्य शुजाउद्दौला के राज्य में मिला लिया गया.

इस युद्ध के लिए हेस्टिंग्स की कड़े शब्दों में निंदा की गई है. हेस्टिंग्स पर दोषारोपण करने वालों ने रुहेलों की मुसीबतों का वर्णन नमक-मिर्च लगाकर किया है. परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि रुहेलों ने अंग्रेजों का कुछ नहीं बिगाड़ा था. इस मामले में हेस्टिंग्स ने अपनी स्वाभाविक विचारशीलता से काम नहीं किया. जिन कारणों से प्रभावित होकर उसने इस युद्ध में हाग लिया उनसे उसकी बुद्धि और अनुभव की सराहना नहीं की जा सकती. इससे अच्छा होता कि वह दोनों को लड़ने देता और खुद को अलग रखता.

रेग्यूलेटिंग एक्ट (1773)

ईस्ट इंडिया कम्पनी के मामलों की ओर अबी इंग्लैंड की सरकार का ध्यान आकृष्ट हुआ. 1773 ई. में जाँच करने से यह मालूम हुआ कि कम्पनी का सालाना खर्च बहुत बढ़ गया है और उसका दिवाला निकलनेवाला है. उसके संचालकों ने सरकार से कहा कि यदि कम्पनी को कर्ज नहीं मिलेगा तो उसके लिए भारत में अपना कारोबार चलाना असंभव हो जायेगा. बहुत वाद-विवाद के बाद 1773 में दो कानून (act) पास किये गये. पहले कानून से कम्पनी की कुछ शर्तों पर 4 प्रति सैकड़ा ब्याज पर 14 लाख पौंड का कर्ज मिला. दूसरे कानून का नाम रेग्यूलेटिंग एक्ट था.

रेग्यूलेटिंग एक्ट के अनुसार कंपनी के शासन-विधान का संशोधन हुआ और उसमें कुछ परिवर्तन किये गये. कम्पनी के मामलों पर इंग्लैंड की सरकार का नियंत्रण रखा गया. रेग्यूलेटिंग एक्ट में निम्नलिखित बातें थीं –

  • बंगाल का गवर्नर भारत का गवर्नर-जनरल बना दिया गया और उसका कार्यकाल 5 वर्ष नियत किया गया. भारत के सारे सूबों पर उसका अधिकार स्थापित कर दिया गया.
  • उसकी सहायता के लिए चार मेम्बरों की एक कौंसिल बनाई गई परन्तु मतभेद होने पर गवर्नर-जनरल को काउंसिल की राय रद्द करने का अधिकार नहीं दिया गया.
  • गवर्नर-जनरल को मद्रास और बम्बई अहातों की विदेशी नीति पर नियंत्रण रखने का अधिकार मिला.
  • भारत की मालगुजारी के सम्बन्ध में जो लिखा-पढ़ी होती थी उसे कम्पनी के डायरेक्टर इंग्लैंड की सरकार के समक्ष उपस्थित करने के लिए बाध्य हो गये. साथ ही यह भी नियम हुआ कि फौजी अथवा व्यापारिक मामलों के सम्बन्ध में कम्पनी जो कुछ कार्यवाही करे, उसकी सूचना इंग्लैंड सरकार को दे.
  • कलकत्ते में “सुप्रीम कोर्ट” नाम की एक बड़ी अदालत स्थापित हुई. उस पर गवर्नर-जनरल और उसकी कौंसिल का कुछ भी अधिकार नहीं था. सर एलिजा इम्पी इस अदालत का सबसे बड़ा जज नियुक्त हुआ.

इन सब अफसरों को अच्छी-खासी तनख्वाह दी गई और व्यापार करने और भेंट लेने की मनाही कर दी गई.

रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा इंग्लैंड की सरकार ने ब्रिटिश भारत शासन को नया रूप देने की कोशिश की. उसमें कई दोष थे. कंपनी पर इंग्लैंड की सरकार ने अपना अधिकार तो स्थापित कर लिया, परन्तु वस्तुतः व्यवाहरिक रूप में उससे अधिक लाभ प्राप्त नहीं हुआ. इसका कारण यह था कि मंत्रीमंडल को अपने ही कामों से फुर्सत नहीं मिलती थी. गवर्नर-जनरल को यह अधिकार नहीं था कि वह कौंसिल इ बहुमत को रद्द कर सके. मेम्बरों की दलबंदी और शत्रुता के कारण उसके मार्ग में बड़ी बाधाएँ आ पड़ीं. मद्रास और बम्बई अहातों के सिर्फ विदेशी मामले ही भारत सरकार के अधीन रखे थे. अपने अंदरूनी मामलों में वे अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए स्वतंत्र थे. सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों की ठीक-ठीक व्याख्या नहीं की गई थी. सके कारण कौंसिल और कोर्ट में झगड़ा होता था और इन झगड़ों से शासन-कार्य में बड़ी रुकावट पैदा होती थी.

सुप्रीम कोर्ट की स्थापना

सुप्रीम कोर्ट की स्थापना 1773 ई. में रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा हुई थी. इंग्लैंड के राजा ने जिन जजों की नियुक्ति की थी उन्होंने कौंसिल के अधिकारों की कुछ भी परवाह नहीं की. कौंसिल और अदालात के अधिकारों की सीमा निर्दिष्ट न होने से उनके बीच झगड़ा पैदा होना अनिवार्य था. उनके झगड़ों से प्रजा को, विशेषकर जमींदारों और किसानों को बहुत हानि उठानी पड़ती थी. अदालत मालगुजारी के मामलों में हस्तक्षेप करती थी और कौंसिल के अधिकारों की उपेक्षा करती थी. आदालत की कार्यवाही मनमानी होती थी इस लिए जज लोग बहुत अप्रिय बन गये थे. हिन्दुस्तानियों के साथ बड़ी सख्ती का बर्ताव किया जाता था. शासन का काम ठीक तरह से नहीं होता था. 1781 में अदालात के विधान में कुछ संशोधन किया गया. ब्रिटिश प्रजा-सम्बन्धी मामलों के अतिरिक्त गवर्नर-जनरल और कौंसिल के सदस्य किसी बात में अदालत के अधीन नहीं थे. मालगुजारी के मामलों से अदालत का कुछ भी सम्बन्ध न रहा. कलकत्ते में रहनेवाले लोगों के सब मुकदमे इस अदालत के अधीन हो गये. परन्तु हिन्दुओं और मुसलामानों के झगड़े उन्हीं के कानून के अनुसार तय किये जाते थे. उनके मामलों में अंग्रेजी कानून से काम नहीं लिया जाता था.

पिट्स इंडिया एक्ट

पिट्स इंडिया एक्ट के विषय में इस लिंक में पढ़ लें >पिट्स इंडिया एक्ट (Pitt’s India Act) 

हेस्टिंग्स का चरित्र

हेस्टिंग्स असाधारण योग्यता का मनुष्य था. केवल अपनी योग्यता के बल से ही वह एक लेखक से भारत का गवर्नर जनरल हो गया था. उसमें संगठन करने की अद्भुत् शक्ति थी. कूटनीति में वह बड़ा दक्ष था. वह विद्या-प्रेमी था. उसके समय में कलकत्ता और मद्रास में कॉलेज स्थापित हुए. प्राच्य कला और विज्ञान के अध्ययन के लिए सर विलियम जोन्स ने “एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल” नामक प्रसिद्ध संस्था की स्थापना की.

हेस्टिंग्स का इंग्लैंड लौट जाना

1785 ई. में हेस्टिंग्स वापस बुला लिया गया. इंग्लैंड पहुँचने पर पार्लियामेंट ने उस पर मुकदमा चलाया और बड़े-बड़े इल्जाम लगाये. यह मुकदमा सात वर्ष तक चलता रहा. अंत में वह सब मामलों में निर्दोष ठहराया गया और ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उसे पेंशन दी. अपने शेष जीवन को उसने डेलिसफोर्ड में अपने बाप-दादों के घर पर शांतिपूर्ण व्यतीत किया.

Tags : वारेन हेस्टिंग्स का चरित्र, शासनकाल और घटनाएँ. कौन था वारेन हास्टिंग्स. वारेन हास्टिंग्स ने कब से कब तक शासन किया? प्रशासनिक व न्यायिक सुधार. Regulating Act in Hindi. Rohilla War information

आपको इस सीरीज के सभी पोस्ट इस लिंक में एक साथ मिलेंगे >> #AdhunikIndia[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]

Spread the love
Read them too :
[related_posts_by_tax]