उग्र राष्ट्रवाद के उदय के कारण (1905-1915)

Sansar Lochan#AdhunikIndia

कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनकी भिक्षा-याचना की नीति ने कांग्रेस की स्थिति हास्यास्पद बनाकर रख दी थी. इसलिए कांग्रेस में एक नए तरूण दल का उदय हुआ जो पुराने नेताओं के ढोंग एवं आदर्शों का कड़ा आलोचक बन कर उभरा. फलतः कांग्रेस दो गुटों में विभाजित होने लगी – उदारवादी और उग्रवादी या नरमपंथी और गरमपंथी. लोकमान्य तिलक, बिपिन चन्द्र पाल, अरविन्द घोष और लाला लाजपत राय गरमपंथी वर्ग के मुख्य नेतृत्वकर्ता थे तथा इनका उद्देश्य “पूर्ण स्वराज” की प्राप्ति था. शनै: शनै: दोनों ही दलों में यह विवाद और अलगाव बढ़ता ही गया. यह विभेद बंगाल विभाजन से और भी बड़ा हो गया .

1907 में सूरत अधिवेशन में कांग्रेस स्पष्टतः दो दलों – नरम दल और गरम दल में विभाजित हो गया. इस विभाजन ने भारत में उग्र राष्ट्रीयता को जन्म दिया. इसी उग्र राष्ट्रीयता से अंततः क्रांतिकारी आन्दोलन का भी विकास हुआ, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बड़ी भूमिका  निभाई. उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के भीतर इस विभाजन से जन-सामान्य के बीच नकारात्मक छवि उभरी, जिससे स्वदेशी आन्दोलन पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा.

गरमपंथी

लाल-बाल-पाल ने राष्ट्रवादी शब्दावली में स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा को सम्मिलित किया. जहाँ नरमपंथी लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्रमिक विकास को तूल देते थे, वहीं गरमपंथियों ने स्वराज (self-rule) की माँग की.

नरमपंथी और गरमपंथी : एक तुलनात्मक अध्ययन

क्रम संख्या

पहलू

नरमपंथी

गरमपंथी

1

प्रमुख नेता

गोपाल कृष्ण गोखले, फ़िरोज़शाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी

लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचंद्र पाल

2

प्रेरणास्रोत

पाश्चात्य उदार विचार एवं यूरोपीय इतिहास

भारत का गौरवशाली इतिहास एवं सांस्कृतिक विकास

3

लक्ष्य

संवैधानिक सुधार, सरकारी सेवाओं में भारतीयों की सहभागिता बढ़ाना

स्वराज

4

निष्ठा

ब्रिटिश क्राउन एवं उसकी न्यायप्रियता में पूर्ण निष्ठा

ब्रिटिश क्राउन एवं उसकी न्यायप्रियता विश्वास योग्य नहीं

5

रणनीति

संवैधानिक-प्रार्थनापत्र,  याचिका एवं शांतिपूर्ण प्रदर्शन

स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा एवं सक्रिय प्रतिरोध

6

साधन

केवल अहिंसक साधनों में विश्वास

आवश्यकता पड़ने पर हिंसक साधनों से भी परहेज नहीं

7

राष्ट्रवाद का आधार

प्रधानतः आर्थिक

सांस्कृतिक एवं धार्मिक

8

सामाजिक आधार

जमींदार एवं उच्च-माध्यम वर्ग का शिक्षित तबका

शिक्षित एवं निम्न-मध्यवर्गीय तबका

उग्र राष्ट्रवाद का विकास

उग्र राष्ट्रवाद के विकास के लिए कई कारण उत्तरदायी थे : –

ब्रिटिश शासन के सही चरित्र की पहचान

नरमपंथी राष्ट्रवादियों की राजनीति इस विश्वास पर आधारित थी कि ब्रिटिश शासन को धीरे-धीरे पटरी पर लाया जा सकता है. लेकिन जब उन्हें अंग्रेजों के वर्चस्व का आभास हुआ और उनकी माँगों को बार-बार ठुकराया गया तो शनैः शनैः यह विश्वास भी टूट गया. आरंभिक काल के नेताओं ने अपने अध्ययन तथा लेखों द्वारा लोगों को भारत में अंग्रेजी राज्य के सच्चे स्वरूप को समझाने का प्रयत्न किया. उन्होंने अपने प्रमाणों से यह सिद्ध किया कि अंग्रेजी राज तथा उसकी नीतियाँ ही भारत में दरिद्रता के मूल कारण हैं.

उन्होंने अनुभव किया कि जब तक भारतीयों द्वारा नियंत्रित और संचालित कोई सरकार ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्थान नहीं ले सकती, आर्थिक क्षेत्र में भारत शायद ही कुछ प्रगति कर पाए. राष्ट्रवादियों ने विशेष रूप से यह भी देखा कि भारत के उद्योग तब तक फल-फूल नहीं सकते, जब तक कि उन्हें सुरक्षा और प्रोत्साहन देने वाली कोई भारतीय सरकार न हो. भारत में 1896 और 1900 के बीच भयानक अकाल आए जिसमें 90 लाख से ऊपर लोग मरे थे, वे जनता की दृष्टि में विदेशी शासन के आर्थिक दुष्परिणामों के जीते जागते प्रतीक थे.

1892 और 1905 के बीच जो राजनीतिक घटनाएँ घटीं, उन्होंने भी राष्ट्रवादियों को काफी निराश किया तथा उन्हें और भी उग्र राजनीति के बारे में सोचने को बाध्य किया. 1892 का ‘‘भारतीय परिषद् कानून’’ घोर निराशा का कारण सिद्ध हुआ. दूसरी ओर जनता को जो थोड़े से राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे, उन पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास किए गये. 1898 में एक कानून बनाया गया जिसके अनुसार ‘‘विदेशी शासन के प्रति असंतोष की भावना’’ फैलाने को अपराध घोषित किया गया. 1899 में कलकत्ता नगर निगम में भारतीय सदस्यों की संख्या घटा दी गयी.

1904 में इण्डियन ऑफिसियल सेक्रेट एक्ट बनाकर प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया. 1897 में नाटु भाइयों को बिना मुकदमा चलाए देश बाहर कर दिया गया तथा उन पर लगाए गये आरोपों को भी जनता को नहीं बतलाया गया. उसी वर्ष तिलक और दूसरे समाचार पत्रा सम्पादकों को विदेशी सरकार के प्रति जनता को भड़काने के आरोप में लम्बी-लम्बी जेल की सजाये दी गयीं.

इन सब बातों से जनता को लगा कि सरकार राजनीतिक छटू देने के बजाय पहले से मिले छूटों को भी नियंत्रित करना चाहती है. लॉर्ड कर्जन के कांग्रेस-विरोधी दृष्टिकोण ने अधिकाधिक लोगों को विश्वास दिलाया कि भारत में ब्रिटिश शासन के रहते राजनीतिक और आर्थिक प्रगति की आशा करना व्यर्थ है. सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी ब्रिटश शासन अब प्रगतिशील नहीं रहा था. प्राथमिक और तकनीकी शिक्षा में कोई प्रगति नहीं हो रही थी. साथ ही अधिकारीगण उच्च शिक्षा के प्रति शंकित हो रहे थे और उसके प्रसार में बाधा डालने की कोशिश कर रहे थे. 1904 भारतीय विश्वविद्यालय कानून से राष्ट्रवादियों को लगा कि भारत के विश्वविद्यालयों पर और भी सख्त सरकारी नियंत्रण स्थापित करने तथा उच्च शिक्षा का प्रसार रोकने का प्रयास किया जा रहा है. इस तरह अधिकाधिक संख्या में भारतीयों को विश्वास होता जा रहा था कि देश की आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए स्वशासन आवश्यक है.

आत्म विश्वास का संदेश

19वीं सदी के अंत तक भारतीय राष्ट्रवादियों में आत्म विश्वास और आत्म सम्मान की बहुत वृद्धि हुई. उन्हें अपना शासन स्वयं कर पाने तथा देश का विकास कर सकने की अपनी क्षमता में विश्वास हो चुका था. तिलक, अरविंद घोष और विपिन चन्द्र पाल जैसे नेताओं ने राष्ट्रवादियों को आत्मविश्वास का संदेश दिया और उनसे आग्रह किया कि वे भारतीय जनता के चरित्र और क्षमताओं पर विश्वास करें. उन्होंने जनता को बताया कि उनकी समस्या का हल उनके हाथ में है और इसके लिए उन्हें निर्भय और बलवान होना चाहिए. स्वामी विवेकानन्द ने कहा, ‘‘दुनिया में अगर कोई पाप है तो वह निर्बलता है, निर्बलता का त्याग करो’.’’ उन्होंने  जनता से यह भी कहा कि अतीत के महिमामंडन के भरोसे जीना छोड़ो और मर्द की भाँति अपने भविष्य का निर्माण करो. यह भी विचार फैला कि जनता की राजनीतिक चेतना को उभारा जाना चाहिए. उदाहरण के लिए विवेकानन्द ने कहा कि, ‘‘भारत की एक मात्रा आशा उसकी जनता है. उँचे वर्ग के लोग शारीरिक और नैतिक दृष्टि से मृतप्राय हैं.’’

शिक्षा और बेरोजगारी में वृद्धि

19वीं सदी के अंत तक शिक्षित भारतीयों की संख्या में स्पष्ट वृद्धि हुई. इसका एक बड़ा भाग प्रशासन में बहुत ही कम वेतन पर कार्य कर रहा था और दूसरे बहुत से लोग बेरोजगार घूम रहे थे. अपनी आर्थिक स्थिति के कारण ये लोग ब्रिटिश सरकार के चरित्र को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने लगे. उनमें से अनेक उग्र राष्ट्रवादी नीतियों की ओर आकर्षित हुए. शिक्षित भारतीयों की संख्या जितनी बढ़ी, उतना ही लोकतंत्रा, राष्ट्रवाद और आमूल परिवर्तन के पश्चिमी विचारों का प्रभाव भी फैला. ये शिक्षित भारतीय उग्र राष्ट्रवाद के बेहतरीन प्रचारक और अनुयायी सिद्ध हुए.

कांग्रेस की उपलब्धियों से असंतोष

 कांग्रेस के पहले के 15-20 वर्षों की उपलब्धियों से तरूण लोग संतुष्ट नहीं थे. उनका अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा बराबरी की भावना पर कोई विश्वास नहीं रह गया था. वे लोग शांतिपूर्ण और संवैधानिक ढंगों के आलोचक बन गये थे और समझते थे कि याचना, प्रार्थना तथा प्रतिवाद करने की नीति से कुछ नहीं मिलने वाला. उन्होंने साम्राज्यवाद को समाप्त करने के लिए यूरोपीय तरीके अपनाने पर बल दिया.

1905 में लाला लाजपत राय ने इंग्लैंड से लौटने पर कहा कि, ‘‘अंग्रेजी प्रजातंत्र अपनी ही समस्याओं में इतना उलझा हुआ है कि उनके पास हमारी समस्याओं के लिए कोई समय नहीं.’’ कांग्रेस के तरूण दल के अनुसार कांग्रेस का राजनीतिक  केवल क्राउन के प्रति राजभक्ति प्रकट करना, उद्देश्य केवल अपने लिए प्रांतीय अथवा केन्द्रीय विधान परिषदों में सदस्यता प्राप्त करना और कार्यक्रम, केवल अत्यधिक भाषण देना था. उन पर यह दोष लगाया गया कि वे केवल मध्यमवर्गीय बुद्धजीवियों के लिए कार्य करते हैं, उन्हें भय है कि यदि जनसाधारण इस आंदोलन में आ गया, तो उनका नेतृत्व समाप्त हो जायेगा. तिलक ने कांग्रेस को ‘चापलूसों का सम्मेलन’ और इसके अधिवेशन को, ‘छुट्टियों का मनोरंजन’ बतलाया, तो लाला लाजपत राय ने कांग्रेस सम्मेलनों को ‘‘शिक्षित भारतीयों का वार्षिक राष्ट्रीय मेला’’ कहा. तिलक ने तो यहाँ तक कहा कि, ‘‘यदि हम इसी तरह वर्ष में एक बार मेढ़क की भाँति टर्र-टर्र करेंगे तो हमें कुछ नहीं मिलेगा.’’

कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ

कजर्न के भारत का 7 वर्ष का शासन शिष्टमंडलों, भूलों और आयोगों के लिए प्रसिद्ध था, जिसकी भारतीयों में कड़ी प्रतिक्रिया हुई. कर्जन ने भारत को कभी एक राष्ट्र नहीं माना. उसकी दृष्टि में भारतीय चरित्र का मूल्य बहुत कम था. वह भारत में ब्रिटिश सत्ता की जड़ें मजबूत करने आया था. वह कांग्रेस और राष्ट्रीयता की भावना का प्रबल दुश्मन था.

उसने भारतीयों को संवैधानिक और प्रशासनिक अधिकार देने के बदले सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित करने का प्रयास किया. उसने भारतीयों को उच्च सरकारी पदों के अयोग्य करार दिया, कलकत्ता कॉरपोरेशन एक्ट द्वारा इसक सदस्यों की संख्या घटा दी गई, भारतीय विश्वविद्यालय एक्ट द्वारा उच्च शिक्षा पर सरकारी नियंत्रण और अधिक बढ़ा दिया तथा ऑफिसियल सेक्रेट एक्ट द्वारा समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया. उसका सबसे विवादास्पद कार्य बंगाल विभाजन था. यह योजना सिर्फ राजनीतिक आधार पर तैयार की गयी थी, इसका कोई वैधानिक या सैद्धांतिक आधार नहीं था. इसका मुख्य उद्देश्य बंगाल में राष्ट्रीयता की भावना को कुचलना था. इस घटना ने बंगाल में उग्रवादी और सरकार विरोधी गतिविधियाँ तेज कर दीं. लार्ड कर्जन की वैदेशिक नीतियाँ भी असंतोष को बढ़ावा मिला.

समकालीन अर्न्तराष्ट्रीय प्रभाव

इस काल की अनके विदेशी घटनाओं ने भी भारत में उग्र-राष्ट्रवाद के विकास को प्रोत्साहित किया. 1858 में ‘मेईजी पुनर्स्थापना’ के बाद आधुनिक जापान के उदय ने दिखा दिया कि एक पिछड़ा हुआ एशियाई देश भी पश्चिमी सहायता के बिना अपना विकास कर सकता है. कुछ ही दशकों में जापान एक औद्योगिक एवं सैनिक शक्ति बन गया. व्यापक प्राथमिक शिक्षा का आरंभ किया गया था और सक्षम और आधुनिक प्रशासन खड़ा किया गया था. 1896 में इथियोपिया द्वारा इटली की हार तथा 1905 में जापान के हाथों रूस की पराजय ने यूरोपीय श्रेष्ठता के भ्रम को तोड़ दिया. एशिया के एक छोटे से देश के हाथों यूरोप की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति की पराजय ने लोगों में नए उत्साह एवं आत्मविश्वास का संचार किया. आयरलैंड, रूस, मिस्र, तुर्की और जापान के क्रान्तिकारी आन्दोलनों तथा दक्षिण अफ्रीका के बोअर युद्ध ने भारतीयों को विश्वास दिला दिया कि अगर जनता एकजटु हाकेर बलिदान के लिए तैयार हो, तो शक्तिशाली निरंकुश सरकारों को भी चुनौती दे सकती है. जिस बात की सबसे अधिक आवश्यकता थी वह थी देशभक्ति और आत्मबलिदान की भावना.

उग्र विचारों से प्रेरित नेताओं का प्रादुर्भाव

राष्ट्रीय आन्दोलन के लगभग आरंभ से ही उग्र-राष्ट्रवादी विचारधारा विकसित हो रही थी. बंगाल में राज नारायण बोस, अश्विनी कुमार दत्त और महाराष्ट्र में विष्णु शास्त्र चिपुलणकर उग्र विचारधारा का प्रसार कर रहे थे. इसे बाल गंगाधार तिलक; लोकमान्यद्ध ने और आगे बढ़ाया. उन्होंने महाराष्ट्र में अपने भाषणों तथा लेखों द्वारा छत्रापति शिवाजी को आदर्श बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध विरोध की प्रक्रिया तीव्र कर दी. इस कार्य में उनके दो समाचार पत्रों – ‘‘मराठा’’ (अंग्रेजी में) तथा ‘‘केसरी’’ (मराठी में) ने अत्यधिक योगदान दिया. 1893 में उन्होंने ‘‘गणपति उत्सव’’ का उपयोग राष्ट्रवादी विचारों के प्रसार के लिए किया. इसी तरह 1895 में उन्होंने ‘‘शिवाजी उत्सव’’ का आयोजन आरंभ किया.

इसका उद्देश्य महाराष्ट्रीय युवकों के आगे अनुकरण के लिए शिवाजी का उदाहरण पेश कर उनमें राष्ट्रवाद की भावना पैदा करना था. 1896-97 में उन्हानें महाराष्ट्र के अकाल पीड़ित किसानों से कहा कि अगर उनकी फसल चौपट हो जाये तो वे मालगुजारी न दें. जब सरकार के खिलाफ घृणा और असंतोष भड़काने के आरोप में सरकार ने उन्हें 1897 में गिरफ्तार किया, तो उन्होंने दिलेरी और बलिदान का एक शानदार उदाहरण पेश किया. उन्होंने सरकार से क्षमा मानने से इंकार कर दिया और उन्हें 18 महीने कैद की सजा हुई. इस तरह वे आत्म-बलिदान की राष्ट्रीय भावना के जीते जागते प्रतीक बन गय. 20वीं सदी के आरंभ में उग्र राष्ट्रवादियों को एक अनुकूल राजनीतिक वातावरण प्राप्त हुआ. तिलक के अलावा उग्र राष्ट्रवाद के दूसरे महत्वपूर्ण नेता विपिनचन्द्र पाल, अरविंद घोष और लाला लाजपत राय थे.

उग्रवादी दल के उद्देश्य तथा कार्यक्रम

उनका मत था कि भारतीयों को मुक्ति स्वयं अपने प्रयासों से प्राप्त करनी होगी. उन्होंने घोषणा की कि इस कार्य के लिए बड़े-बड़े बलिदान करने होंगे और तकलीफें सहनी होंगी. उनके भाषण, लेख और राजनीतिक कार्य दिलेरी और आत्मविश्वास से भरपूर थे और अपने देश की भलाई के लिए किसी भी व्यक्तिगत बलिदान को कम समझते थे.

उन्होंने नरमपंथियों की इस मान्यता को कि भारत अंग्रेजों के ‘‘कृपापूर्ण मागदर्शन और नियंत्रण’’ में ही प्रगति कर सकता है, मानने से इंकार कर दिया. वे विदेशी शासन से दिल से नफरत करते थे और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि ‘‘राष्ट्रीय आन्दोलन का लक्ष्य स्वराज्य या स्वाधीनता है. यह स्मरण रहे कि इन राष्ट्रवादियों के लिए स्वराज्य का अर्थ विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता था, जिसमें राष्ट्र की नीतियों तथा प्रबन्ध में पूर्णतया स्वतंत्रता हो.’’ उदारवादी दल के लिए स्वराज्य का अर्थ, साम्राज्य के अन्दर औपनिवेशिक स्वशासन था.

उन्हें जनता की शक्ति में असीम विश्वास था और उनकी योजना जनता की कार्यवाही के द्वारा स्वराज्य प्राप्त करने की थी. इसलिए उन्होंने जनता के बीच राजनीतिक कार्य पर और जनता की सीधी राजनीतिक कायर्वाही पर जोर दिया. उग्रवादियों के कार्यक्रमों में विदेशी माल का बहिष्कार और स्वदेशी माल को अगींकार के अतिरिक्त राष्ट्रीय शिक्षा और सत्यागह्र पर जोर दिया गया था. उनका मानना था कि विदेश माल के बहिष्कार और स्वदेशी माल के प्रयोग से अंग्रेजों को वित्तीय हानि होगी और बंगाल विभाजन रद्द करने के लिए सरकार पर दबाव डाला जा सकेगा. सरकार नियंत्रित शिक्षा संस्थाओं के स्थान पर एक राष्ट्रीय शिक्षा योजना बनायी गयी. उग्रवादी दल की योजना थी कि विद्यार्थियों को देश सेवा में लगाया जाये. जब सरकार ने विद्यार्थियों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करने की धमकी दी, तो विद्यार्थियों को यह कहा गया कि वे इन विश्वविद्यालयों को छोड़ दें. सर गुरुदास बनर्जी ने बंगाल राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् बनाई. मद्रास में पछैप्पा राष्ट्रीय कॉलेज स्थापित किया गया. पंजाब में डी.ए.वी. आन्दोलन ने जोर पकड़ा. उग्रवादियों ने सहकारी संगठनों को भी बढ़ावा दिया. गाँवों की सफाई, प्रतिबन्धक पुलिस कार्य, मेलों का आयोजन इत्यादि के लिए स्वयंसेवी संस्थाएं स्थापित की गईं. दीवानी मामलों तथा छोटे-छोटे झगड़ों की सुलझाने को लिए पंच निर्णय समितियाँ बनाई गईं.

भारतीय क्रांतिकारी संगठन

संगठन

स्थापना वर्ष

संस्थापक

स्थान

मित्र मेला

1899

वी.डी. सावरकर, गणेश सावरकर

महाराष्ट्र

अनुशीलन समिति

1902

वीरेन्द्र कुमार घोष, जतीन्द्रनाथ बनर्जी, प्रबोध मित्र, पुनिल दास, सतीशचन्द्र बोस

बंगाल

अभिनव भारत समाज

1904

सावरकर

महाराष्ट्र

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन

1924

शचीन्द्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल, योगेश चटर्जी

बंगाल

रिपब्लिकन एसोसिएशन

1928

चंद्रशेखर आजाद

दिल्ली

युगांतर

1906

वीके. घोष, भूपेन्द्रनाथ दत्त

कलकत्ता

 

विदेशों में संचालित क्रांतिकारी संगठन

संगठन

स्थापना वर्ष

संस्थापक

स्थान

इंडिया होमरूल सोसाइटी

1905

श्यामजी कृष्ण वर्मा

इंग्लैंड

इंडियन इंडिपेंडेंस

1907

तारकनाथ दास

अमेरिका

हिन्द एसोसिएशन

1913

सोहन सिंह भाकना

अमेरिका

ग़दर पार्टी

1913

लाला हरदयाल, रामचंद्र, बरकतुल्ला

सैन फ्रांसिस्को (अमेरिका)

इंडियन इंडिपेंडेंस लीग और स्वतंत्र सरकार

1915

राजा महेंद्र प्रताप

अफगानिस्तान

इंडियन इंडिपेंडेंस लीग

1942

रास बिहारी बोस

जापान

आजाद हिन्द फ़ौज

1942

मोहन सिंह

जापान

पेरिस इंडियन सोसाइटी

1905

मैडम कामा

पेरिस

विश्लेषण

स्वदेशी आन्दोलन को देश के अन्य भागों तक पहुँचाने में उग्र-राष्ट्रवादियों, विशेषकर तिलक (बंबई और पूना) की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही. अजीत सिंह और लाला लाजपत राय ने पंजाब तथा संयुक्त प्रांत में आन्दोलन का नेतृत्व किया. सैय्यद हैदर रजा ने दिल्ली में तथा चिदम्बरम पिल्लई ने मद्रास प्रेसीडेंसी में आन्दोलन का नेतृत्व किया. स्वदेशी आन्दोलन ने समाज के बड़े वर्ग में राष्ट्रीयता की चेतना का संचार किया. इस आन्दोलन ने अंग्रेज़ी शासन को अत्यधिक क्षति पहुँचाई और  भारतीय संस्कृति जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया. इस आन्दोलन ने जनमत तैयार करने के लिए कई नए तरीके विकसित किये. यह उपनिवेशवाद के विरुद्ध प्रथम सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन था.

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