सिन्धु घाटी सभ्यता में नगर-योजना – Town Planning in Hindi

Dr. SajivaAncient History

सिन्धु सभ्यता में संपादित उत्खननों पर एक विहंगम दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि यहाँ के निवासी महान् निर्माणकर्ता थे. उन्होंने नगर नियोजन करके नगरों में सार्वजनिक तथा निजी भवन, रक्षा प्राचीर, सार्वजनिक जलाशय, सुनियोजित मार्ग व्यवस्था तथा सुन्दर नालियों के प्रावधान किया.

हड़प्पा सभ्यता – नगर नियोजन

वास्तव में सिन्धु घाटी सभ्यता अपनी विशिष्ट एवं उन्नत नगर योजना (town planning) के लिए विश्व प्रसिद्ध है क्योंकि इतनी उच्चकोटि का “वस्ति विन्यास” समकालीन मेसोपोटामिया आदि जैसे अन्य किसी सभ्यता में नहीं मिलता. सिन्धु अथवा हड़प्पा सभ्यता के नगर का अभिविन्यास शतरंज पट (ग्रिड प्लानिंग) की तरह होता था, जिसमें मोहनजोदड़ो की उत्तर-दक्षिणी हवाओं का लाभ उठाते हुए सड़कें करीब-करीब उत्तर से दक्षिण तथा पूर्ण से पश्चिम को ओर जाती थीं. इस प्रकार चार सड़कों से घिरे आयतों में “आवासीय भवन” तथा अन्य प्रकार के निर्माण किये गये हैं.

नगर योजना एवं वास्तुकला के अध्ययन हेतु हड़प्पा सभ्यता के निम्न नगरों का उल्लेख प्रासंगिक प्रतीत होता है –

  1. हड़प्पा
  2. मोहनजोदड़ो
  3. चान्हूदड़ो
  4. लोथल
  5. कालीबंगा

हड़प्पा के उत्खननों से पता चलता है कि यह नगर तीन मील के घेरे में बसा हुआ था. वहाँ जो भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं उनमें स्थापत्य की दृष्टि से दुर्ग एवं रक्षा प्राचीर के अतिरिक्त निवासों – गृहों, चबूतरों तथा “अन्नागार” का विशेष महत्त्व है. वास्तव में सिंधु घाटी सभ्यता का हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, सुत्कागेन-डोर एवं सुरकोटदा आदि की “नगर निर्माण योजना” (town planning) में मुख्य रूप से समानता मिलती है. इनमें से अधिकांश पुरास्थ्लों पर पूर्व एवं पश्चिम दिशा में स्थित “दो टीले” हैं.

कालीबंगा ही एक ऐसा स्थल है जहाँ का का “नगर क्षेत्र” भी रक्षा प्राचीर से घिरा है. परन्तु लोथल तथा सुरकोटदा के दुर्ग तथा नगर क्षेत्र दोनों एक ही रक्षा प्राचीर से आवेष्टित थे. ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्ग के अंदर महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक तथा धार्मिक भवन एवं “अन्नागार” स्थित थे. संभवतः हड़प्पा में गढ़ी के अन्दर समुचित ढंग से उत्खनन नहीं हुआ है.

दुर्ग (Citadel)

हड़प्पा नगर की रक्षा हेतु पश्चिम में एक दुर्ग का निर्माण किया गया था जो आकार में “समकोण चतुर्भुज” के सदृश था. उत्तर से दक्षिण की और इसकी लम्बाई 460 गज तथा पूर्व से पश्चिम की ओर चौड़ाई 215 गज अनुमानित है. सम्प्रति इसकी ऊँचाई लगभग 40 फुट है. जिस टीले पर इस दुर्ग के अवशेष प्राप्त होते हैं उसे विद्वानों ने “ए बी” टीला कहा है.

मोहनजोदड़ो का दुर्ग

हड़प्पा की भाँति यहाँ का दुर्ग भी एक टीले पर बना हुआ था जो दक्षिण की ओर 20 फुट तथा उत्तर की ओर 40 फुट ऊँचा था. सिन्धु नदी की बाढ़ के पानी ने इसके बीच के कुछ भागों को काटकर इसे दो भागों में विभक्त कर दिया है. कुछ विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में नदी की एक धारा दुर्ग के पूर्वी किनारे पर अवश्य रही होगी. 1950 ई. के उत्खननों के उपरान्त यह मत प्रतिपादित किया गया है कि इस दुर्ग की रचना “हड़प्पा सभ्यता के मध्यकाल” में हुई. इस दुर्ग या कोटला (citadel) के नीचे पक्की ईंटों की पक्की नाली का निर्माण किया गया था जिससे वे बाढ़ के पानी को बाहर निकाल सकें.

लोथल का प्राचीर

लोथल का टीला लगभग 1900 फुट लम्बा, 1000 फुट चौड़ा तथा 200 फुट ऊँचा हैं. यहाँ उत्खनन कार्य (excavation) केन्द्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा किया गया. परिणामस्वरूप यहाँ छ: विभिन्न कालों की सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं. आवश्यकता आविष्कार की जननी मानी जाती है. इसी परम्परा के अनुरूप लोथल के निवासियों ने बाढ़ से सुरक्षा के लिए पहले “कच्ची ईंटों” का एक विशाल चबूतरा निर्मित किया. तदनंतर उसे पुनः और अधिक ऊँचा करके इस चबूतरे पर एक मिट्टी के बने “सुरक्षा प्राचीर” का निर्माण किया गया जो 35 फुट चौड़ा तथा 8 फुट ऊँचा है. उत्तर दिशा में दरार की  मरमत्त के समय बाहरी भाग को ईंटों से सुदृढ़ किया गया तथा अन्दर एक सहायक दीवार बना दी गई. 1957 के उत्खनन में प्राचीन बस्ती के बाहर चारों ओर एक “चबूतरे के अवशेष” मिले. यह चबूतरा कच्ची ईंटों का बना था. उस समय  इसे दक्षिण की ओर 600 फुट तक तथा पूर्व की ओर 350 फुट तक देखा जा सकता था.

भवन निर्माण और तकनीकें

“भवन निर्माण कला” सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन (town planning) का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष था. इन नगरों के स्थापत्य में “पक्की सुन्दर ईंटों” का प्रयोग उनके विकास के लम्बे इतिहास का प्रमाण है. ईंटों की चुनाई की ऐसी विधि विकसित कर ली गई थी जो किसी भी मानदंड के अनुसार वैज्ञानिक थी और “आधुनिक इंग्लिश बांड” से मिलती-जुलती थी. मकानों की दीवारों की चुनाई के समय ईंटों को पहले लम्बाई के आधार पर पुनः चौड़ाई के आधार पर जोड़ा गया है. चुनाई की इस पद्धति को “इंग्लिश बांड” कहते हैं.

hadappa_bricks

हड़प्पा में मोहनजोदड़ो की भाँति विशाल भवनों के अवशेष प्राप्त नहीं हुए तथा कोटला (दुर्ग) के ऊपर जो अवशेष मिले हैं, उनसे प्राचीन स्थापत्य (architecture) पर कोई उल्लेखनीय प्रकाश नहीं पड़ता.

यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि लोथल, रंगपुर एवं कालीबंगा में भवनों के निर्माण में कच्ची ईंटों का भी प्रयोग किया गया है. कालीबंगा में पक्की ईंटों का प्रयोग केवल नालियों, कुओं तथा दलहीज के लिए किया गया था.

लोथल के लगभग सभी भवनों में पक्की ईंटों के फर्श वाले एक या दो चबूतरे मिले हैं जो प्रायः स्नान के लिए प्रयोग होते थे.

साधारण आवासीय मकान

सिंधु सभ्यता के नगरों के आम लोगों के मकान के बीच एक आँगन होता था, जिसके तीन अथवा चारों तरफ चार-पाँच कमरे, एक रसोईघर तथा स्नानागार रहता था. चूँकि मकान तथा अन्य भवन मुख्यतः आयाताकार होते थे, इसलिए वास्तुकला की और अधिक जटिल तकनीकों की संभवतः आवश्यकता नहीं पड़ती थी. डाट पत्थर के मेहराब की जानकारी नहीं थी, यद्यपि यह कठिन नहीं होना चाहिए था, क्योंकि ऐसी वक्र सतहें वेज-आजार वाली ईंटों से जोड़ी जा सकती थीं.

अभी तक कोई गोल सतम्भ नहीं मिला है, संभवतः इसलिए इसकी आवश्यकता नहीं थी (यद्यपि मोहनजोदड़ों के अंतर्गत एक स्तम्भ वाले हॉल की चर्चा की जाती है परन्तु कहना कठिन है कि ये स्तम्भ गोल हैं अथवा वर्गाकार).

अधिकांश घरों में एक कुआँ भी होता था. “जल निकास” की सुविधा की दृष्टि से “स्नानागार” प्रायः गली की ओर स्थित होते थे. स्नानाघर के फर्श में अच्छे प्रकार की “पक्की ईंटों” का प्रयोग किया जाता था. संपन्न लोगों के घरों में शौचालय भी बने होते थे. उत्खनन में मोहनजोदड़ो से जो भवनों के अवशेष मिले हैं उनके “द्वार” मुख्य सड़कों की ओर न होकर “गलियों की ओर” खुलते थे. “खिड़कियाँ”  कहीं-कहीं मिलते हैं.

भवन निर्माण हेतु मोहनजोदड़ों तथा हड़प्पा में “पकी हुई ईंटों का प्रयोग” किया गया था. सभी ईंटें पुलिनमय मिट्टी (गीली मिट्टी) से बनी हैं. ईंटें भूसे-जैसी किसी संयोजी सामग्री के बिना ही असाधारण रूप से सुनिर्मित हैं. ये खुले सांचे में बनाई जाती थीं तथा इनके शीर्ष पर लड़की का टुकड़ा ठोका जाता था, परन्तु उनके आधार समान रूप से कठोर हैं जिससे यह संकेत मिलता है कि वे धूलभरी जमीन पर बनाकर सुखाये जाते थे.

खुले में ईंटें बनाने का साक्ष्य गुजरात के अंतर्गत देवनीमोरी में मिला है तथा अब भी यहाँ खुले में ईंटें बनती हैं.

स्नान-गृहों की सतह एकरूपतः अच्छी तरह बनाई जाती थी तथा सही जोड़ एवं समतल के लिए ईंटें बहुधा आरे से काटी जाती थीं. इसके अतिरिक्त, उन्हें रिसाव-रोधी बनाने के लिए जिप्सम से प्लस्तर किया जाता था.

हड़प्पा सभ्यता के भवनों के द्वार जल जाने के कारण प्लस्तर (plaster) के थोड़े ही चिन्ह रह सके. केवल मोहनजोदड़ो के दो भवनों पर “जला हुआ प्लस्तर” दृष्टिगोचर होता है.

अधिकांश दीवारों में ईंटें हेडर (ईंटों का लम्बवत् चुनाई) तथा स्ट्रेचर (ईंटों की दीवार की मोटाई के साथ-साथ लम्बवत् चुनाई) के अनुक्रम में बिछाई जाती थीं.

हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना के अंतर्गत “दुतल्ले” (दो मंजिलों) भवनों का भी निर्माण किया गया होगा क्योंकि ऊपरी भवन खंड में जाने के लिए “सीढ़ियाँ” बनी थीं जिनके अवशेष अभी तक विद्यमान हैं.

कुएँ

साधारण अथवा असाधारण सभी भवनों के अन्दर कुएँ होते थे जिनका आकार में प्रधानतया “अंडाकार” होता था. इनकी जगत की परिधि दो से सात फुट नाप की होती थी.

मोहनजोदड़ो के निवासियों ने अपने भवनों में शौचगृह भी बनवाये थे और कभी-कभी ये स्नानगृह के साथ ही होते थे. संभवतः आधुनिक काल के Combined Latrin and Bathroom परम्परा उसी का अनुकरण है.

नालियाँ

सिन्धु घाटी सभ्यता की नगरीय वास्तु या स्थापत्य-कला का उत्कृष्ट उदाहरण वहाँ की सुन्दर “नालियों की व्यवस्था” से परिलक्षित होता है.

इसका निर्माण पक्की ईंटों से होता था ताकि गलियों के “जल-मल” का निकास निर्वाध रूप से होता रहे. भवनों की छत पर लगे “परनाले” भी उनसे जोड़ दिए जाते थे. लोथल में ऐसी अनेक नालियों के अवशेष मिले हैं जो एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं. इन नालियों को ढकने की भी व्यवस्था की गई थी. सड़कों के किनारे की नालियों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर “मानुस मोखे” (mail holes) का समुचित प्रावधान रहता था. हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में कुछ ऐसी भी नालियां मिली हैं जो “सोखने वाले गड्ढों” (soakpits) में गिरती थीं. इन नालियों में कहीं-कहीं “दंतक मेहराब” भी पाए गये हैं.

वृहद्-स्नानागार (The Great Bath)

हड़प्पा सभ्यता के स्थापत्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण “वृहद् स्नानागार या विशाल स्नानागार” है जिसे डॉ. अग्रवाल ने “महाजलकुंड” नाम से संबोधित किया है. यह मोहनजोदड़ो पुरास्थल का सर्वाधिक महत्त्व का स्मारक माना गया है. उत्तर से दक्षिण की ओर इसकी लम्बाई 39′ तथा पूर्व से पश्चिम की ओर चौड़ाई 23 फुट और इसकी गहराई 8′  है. अर्थात् इसका आकार लगभग 12x7x2.5 मीटर है. नीचे तक पहुँचने के लिए इसमें उत्तर तथा दक्षिण की ओर “सीढ़ियाँ” बनी हैं.

स्नानागार में प्रवेश के लिए “छ: प्रवेश-द्वार” थे. स्थान-स्थान पर लगे नालों के द्वारा शीतकाल में संभवतः कमरों को भी गर्म किया जाता था.

देवालय

वृहद् स्नानागार के उत्तर-पूर्व की ओर एक विशाल भवन है जिसका आकार 230′  लम्बा x 78′  चौड़ा है. अर्नेस्ट मैके का मत है कि संभवतः यह बड़े पुरोहित का निवास था अथवा पुरोहितों का विद्यालय था.

धान्यागार

वास्तुकला की दृष्टि से मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा के बने धान्यगार (अन्नागार) भी उल्लेखनीय है. पहले इसे स्नानागार का ही एक भाग माना जाता था किन्तु 1950 ई. के उत्खननों के बाद यह ज्ञात हुआ है कि वे अवशेष एक “विशाल अन्नागार” के हैं. महाजलकुंड के समीप पश्चिम में विद्यमान मोहनजोदड़ो का अन्नागार पक्की ईंटों के विशाल चबूतरे पर निर्मित है.

हड़प्पा में भी एक विशाल धान्यागार (granary) अथवा “अन्न-भंडार” के अवशेष प्राप्त हुए हैं. इसका आकार उत्तर से दक्षिण 169′ फीट तथा पूर्व से पश्चिम 135′ फीट था.

सभा-भवन (Pillared Hall)

गढ़ी या कोटला (Citadel) के दक्षिणी भाग में 27×27 मीटर अर्थात् 90′ लम्बे-चौड़े एक वर्गाकार भवन के अवशेष प्राप्त हुए हैं. यह ईंटों से निर्मित पाँच-पाँच स्तम्भों की चार पंक्तियों अर्थात् चौकोर 20 स्तम्भों से युक्त हॉल है. संभवतः इन्हीं स्तम्भों के ऊपर छत रही होगी. अतः यह एक “सभा-भवन” का अवशेष प्रतीत होता है जो इन स्तम्भों पर टिका था जहाँ “सार्वजनिक सभाएँ” आयोजित होती होंगी.

सड़कें

सिन्धु घाटी सभ्यता की नगरीय-योजना (two planning) में वास्तुकला की दृष्टि से मार्गों का महत्त्वपूर्ण स्थान था. इन मार्गों (सड़कों) का निर्माण एक सुनियोजित योजना के अनुरूप किया जाता था. ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्य-मार्गों का जाल प्रत्येक नगर को प्रायः पाँच-छ: खंडों में विभाजित करता था. मोहनजोदड़ो निवासी नगर-निर्माण प्रणाली से पूर्णतया परचित थे इसलिए वहाँ के स्थापत्यविदों ने नगर की रूपरेखा (layout) में मार्गों का विशेष प्रावधान किया. तदनुसार नगर की सड़कें सम्पूर्ण क्षेत्र में एक-दूसरे को “समकोण” पर काटती हुई “उत्तर से दक्षिण” तथा
“पूरब से पश्चिम” की ओर जाती थीं.

कालीबंगा में भी सड़कें पूर्व से पश्चिम-दिशा में फैली थीं. यहाँ के मुख्य मार्ग 7.20 मीटर तथा रास्ते (streets) 1.80 मीटर चौड़े थे. यहाँ भी कच्ची सड़कें थीं परन्तु स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता था. कूड़े के लिए सड़क के किनारे गड्ढे बने थे अथवा “कूड़ेदान” रखे रहते थे. वास्तव में सड़कों, जल निष्कासन व्यवस्था, सार्वजनिक भवनों आदि के विषद विवरण पर “मानसार ग्रन्थ” (मानसार शिल्पशास्त्र का प्राचीन ग्रन्थ है जिसके रचयिता मानसार हैं) एवं शिल्पशास्त्र विषयक ग्रन्थों में अत्यधिक बल दिया गया है.

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