[संसार मंथन] मुख्य परीक्षा लेखन अभ्यास – Polity GS Paper 2/Part 3

RuchiraGS Paper 2, Polity Notes, Sansar Manthan

[no_toc] सामान्य अध्ययन पेपर – 2

भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में गठबंधन सरकार के सकारात्मक पहलुओं की चर्चा करते हुए साथ-साथ ऐसी सरकार की कमजोरियों के विषय में भी तर्क प्रस्तुत करें. (250 words) 

यह सवाल क्यों?

यह सवाल UPSC GS Paper 2 के सिलेबस से प्रत्यक्ष रूप से लिया गया है –

“कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य-सरकार के मंत्रालय एवं विभाग, प्रभावक समूह और औपचारिक/अनौपचारिक संघ तथा शासन प्रणाली में उनकी भूमिका”

सवाल का मूलतत्त्व

प्रश्न को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें बहुत कुछ लिखा जा सकता है. पर आप भ्रम में हैं. आप गठबंधन सरकार की कमजोरियों के विषय में तो बेहिचक लिख सकते हैं पर जब गठबंधन सरकार (coalition government) की भारतीय राजनीति में देन क्या है, यह लिखना पड़े तो पसीने छूट सकते हैं. क्योंकि गठबंधन सरकार के विषय में हमने हमेशा समाचारों, टी.वी. चैनेल डिस्कशन से नकारात्मक तथ्यों को ही बटोरा है. इस प्रश्न में आपको दोनों पक्षों को रखने के लिए कहा जा रहा है.

ध्यान रहे कि अन्य छात्र सीधे सकारात्मक और नकरात्मक पहलू को point-wise लिखना शुरू कर देंगे जो एक गलत तरीका है. आपको ऐसा नहीं करना है. आप अपना उत्तर भूमिका से शुरू करें जिसमें आप यह जिक्र करें कि भारतीय राजनीति में कब और किस परिस्थिति में भारत में गठबंधन की सरकार बनी. इससे आपका उत्तर औरों से अलग दिखेगा और ज्यादा मार्क्स मिलने की संभावना बनेगी.

चलिए देखते हैं इसका उत्तर कैसे लिखा जाए.

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उत्तर :

भारतीय राजनीतिक प्रणाली में गठबंधन की राजनीतिक मंच पर लगभग एक ही पार्टी का वर्चस्व था. कांग्रेस पार्टी ने लगभग 1969 तक भारतीय राजनीतिक मंच पर अपना एकाधिकार स्थिर रखा. कई राजनीतिक विज्ञान के विशेषज्ञ इस व्यवस्था को “कांग्रेस व्यवस्था (Congress System)” का नाम देती है. कांग्रेस विरोधी पार्टियों ने यह अनुभव किया कि उनकी सत्ता बँट जाने के कारण ही कांग्रेस सत्तासीन है. 1967 के चौथे आम चुनाव (लोकसभा और विधानसभा) में कांग्रेस पहली बार नेहरु के बिना मतदाताओं का सामना कर रही थी. इंदिरा गाँधी मंत्रिमंडल के आधे मंत्री चुनाव हार गये. यही वह समय रहा जब गठबंधन की परिघटना भारतीय राजनीति में प्रकट हुई.

गठबंधन की राजनीति की देन

यह ध्यान देने योग्य है कि भारत में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत एक क्रमिक विकास की प्रक्रिया रही. इसकी शुरुआत देश के आजाद होने से लेकर विकास की सीढ़ियों तक चढ़ने के इतिहास में देखा जा सकता है. साथ ही धीरे-धेरे आम जनता व लोगों में जागरूकता से भारतीय राजनीतिक परिस्थतियों ने अपनी दशा और दिशा तय की. आज वर्तमान में न सिर्फ चुनाव प्रक्रिया अधिक कुशल तरीके से संचालित की जाती है बल्कि प्रत्येक मतदाता अपने मत मूल्य, उससे जुड़ी उसका भविष्य और परिणामों से बेहतर रूप में अवगत दिखता है. कहीं न कहीं ये गठबंधन की राजनीति की ही देन है जिसमें कई मुद्दे व चेतनाओं को लोगों के समक्ष रखा. मोटे तौर पर गठबंधन की राजनीति ने भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण सकारत्मक सुधार लाये हैं जैसे –

  1. लोकतंत्र को मजबूती : लोग लिंग, जाति, वर्ग और क्षेत्र सन्दर्भ में न्याय तथा लोकतंत्र के मुद्दे उठा रहे हैं.
  2. सहमति की राजनीति : गठबंधन राजनीति ने सहमति की राजनीति को जन्म दिया. यह सहमति कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर देश के वर्तमान विकास के लिए लाभकारी रही. इन मुद्दों में आर्थिक नीतियों के प्रति समन्वय व तालमेल सबसे महत्त्वपूर्ण रहा. कई दल संयुक्त रूप से इस बात को मानते हैं कि नई आर्थिक नीतियाँ देश में पहले की अपेक्षा आज विकास को लाने का मुख्य कारण रही है.
  3. सामाजिक खाई को पाटने में महत्त्वपूर्ण भूमिका : गठबंधन की राजनीति के माध्यम से जहाँ कई क्षेत्रीय पार्टियाँ अस्तित्व में आयीं, वहीं कई राष्ट्रीय पार्टियों ने कालांतर से दबी सामाजिक समस्याओं की जड़ें खोदी. बसपा ने दलित उत्थान, अन्य पार्टियों ने पिछड़ी जातियों के राजनीतिक और सामाजिक दावे की बात छेड़ी. “आरक्षण” का मुद्दा जो इस पिछड़ेपन की समस्या के समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, इसी समीकरण की देन है. कई पार्टियों ने महिला घरेलू हिंसा, बाल अधिकार, शिक्षा के अधिकार जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों को भारतीय राजनीति का हिस्सा बनाया.
  4. गठबंधन की राजनीति के फलस्वरूप महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर जनता का ध्यानाकर्षण : गठबंधन युग के पहले एक दल के ही मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दे पर हावी रहते थे. लेकिन गठबंधन के कारण अब कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे राष्ट्र के समक्ष न मात्र लाये जाते हैं बल्कि उन पर वाद-विवाद की भी पहल की जाती है. भ्रष्टाचार को लेकर, अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दे या कई परमाणु परियोजनाओं पर ऐसे विवाद होते रहे हैं.
  5. देश के शासन में प्रांतीय दलों की बढ़ती भूमिका और उन्हें स्वीकृति : वर्तमान सन्दर्भ में अब प्रांतीय और राष्ट्रीय दलों में भेद कम हो चुका है तथा कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे इस कारण राष्ट्रीय मुद्दे बन कर उभरने लगे हैं.
  6. गठबंधन की राजनीति ने भारत को अधिक संघात्मक बनाया : न सिर्फ क्षेत्रीय पार्टियों के उदय व उनकी प्रगति से ऐसे कार्य हुए हैं जिनसे भारतीय संघ मजबूत होता है बल्कि अब ऐसे विवाद कम ही देखे जाते हैं जहाँ केंद्र की सरकार राज्य की सरकारों पर अनुचित दबाव और गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप करे. गठबंधन को साथ लेकर चलना, कार्यसिद्धि पर अधिक जोर कहीं-न-कहीं राजनीतिक दलों की सोच को परिपक्व बनाने का कार्य कर रहा है.

गठबंधन सरकार की कमजोरियाँ

  1. कमजोर सरकारें तथा सथायित्व को खतरा : भारत में गठबंधन सरकार (coalition government) के अस्तित्व को लगातार सरकारों के परिवर्तन से एक नकारात्मक स्थिति की तरह लिया जाने लगा. अटलबिहारी वाजपेयी की 1996 में 13 दिन चली सरकार, उसके ठीक बाद 1996 जून से अप्रैल 1997 के बाद अल्पावधि तक चली देवगौड़ा की सरकार, फिर गुजराल की सरकार का आना और अल्पावधि में चले जाना और पुनः NDA की 13 महीने की सरकार ने गठबंधन की राजनीति की सबसे बड़ी दुर्बलता को दर्शाया. इस प्रकार की समीकरणों में “स्थायी अस्तित्व के संकट” की झलक दिखी.
  2. नीतियों के बदलने पर दबाव की लगातार बाध्यता : भारत में गठबंधन सरकार के समक्ष हमेशा से यह चुनौती रही कि किसी भी विषय पर एक आम सहमति कैसी बनाई जाए? कई विदेशी संधियाँ इस तरह की बाध्यता से अक्सर प्रभावित होते रहे. उदाहरण के तौर पर NDA के समय भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौता (Civil Nuclear Deal) “हाइड एक्ट (Hyde Act)” को लेकर तमाम चर्चाएँ कई स्तरों पर लोकसभा और राज्य सभा में झूलती रहीं. इस प्रकार की विकट परिस्थितियों ने न सिर्फ गठबंधन सरकार की मजबूरियों को स्पष्ट रूप से दिखाया बल्कि इससे भारतीय राजनीति की वर्तमान स्थिति पर कई प्रकार के विवादों, बहस और इनकी तार्किकता पर प्रश्नचिह्न लगाया.
  3. अलग-अलग दलों में सैद्धांतिक आदर्शों में मतभेद : गठबंधन सरकार के अस्तित्व को खतरा अक्सर इस सम्बन्ध में देखा जाता है कि कई दलों से मिलकर बनी सरकार को कई सिद्धांतों के मध्य एक समन्वय बनाना पड़ता है और असंतुलन की स्थिति से बचना पड़ता है. उदाहरण के लिए मार्क्स से सम्बंधित दलों की विचारधारा के कारण कई बार औद्योगिक निर्णयों को बदलना या पूर्णतः समाप्त करना पड़ा है. इस प्रकार के निर्णय न केवल घरलू मुद्दों के परिवर्तन पर लागू किये जाते हैं बल्कि कई स्थितियों में बाहरी देश और संघ जैसे अमेरिका, यूरोपियन यूनियन (पूँजीवाद के प्रतिनिधि) से सम्बंधित नीतियों पर भी लिए जाते हैं. अतः आदर्शों पर मतभेद गठबंधन राजनीति की महत्त्वपूर्ण चुनौती है.
  4. प्रधानमन्त्री के विशेषाधिकार का हनन : मंत्रिमंडल के लिए सहयोगियों का चयन ह्म्सेशा प्रधानमन्त्री का विशेषाधिकार माना जाता है. परन्तु गठबंधन सरकार (coalition government) में प्रधानमन्त्री का यह विशेषाधिकार बुरी तरह प्रभावित होता है क्योंकि क्षेत्रीय दलों के नेता यह तय करते हैं कि मंत्रिमंडल में उनके दल का नेतृत्व कौन-कौन करेंगे और यह भी कि उन्हें कौन-कौन विभाग दिए जायेंगे. कई नेता तो पहले से ही यह मंशा पाले रखते हैं कि उन्हें कौन-सा पद लेना है, चाहे कैसे भी. गठबंधन सरकार की मजबूरी के कारण प्रधानमन्त्री को उनकी बात माननी पड़ती है.

सामान्य अध्ययन पेपर – 2

सरकारिया आयोग हमारे देश में लोकतांत्रिक और संघीय मूल्यों की मजबूती का पर्याय बन गया है, स्पष्ट करें . (250 words) 

यह सवाल क्यों?

यह सवाल UPSC GS Paper 2 के सिलेबस से अप्रत्यक्ष रूप से लिया गया है –

“संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-सञ्चालन, शक्तियाँ और विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय”

सवाल का मूलतत्त्व

यदि आप सरकारिया आयोग के विषय में जानते हैं तो इस आयोग ने किस प्रकार हमारे संविधान के संघीय ढाँचे को मजबूत किया उसका विवरण दें.

उत्तर :

न्यायमूर्ति आर.एस. सरकारिया और एस.आर. बोम्मई ने हमारे संविधान के संघीय ढाँचे को मजबूत बनाने और अनुच्छेद – 365 के मनमाने इस्तेमाल पर अंकुश लगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की. न्यायमूर्ति सरकारिया ने उस आयोग की अध्यक्षता की थी जिसने केंद्र और राज्यों के संबंधो का व्यापक अध्ययन कर इस सन्दर्भ में वजनदार सिफारिशें की थीं. इस आयोग के निष्कर्षों के जिस पहलू पर सर्वाधिक बहस हुई तथा चर्चा मिली वह था राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के सन्दर्भ में सरकारिया कमीशन के विचार. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार की बर्खास्तगी को वर्ष 1989 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और राज्य विधानसभा में शक्ति परीक्षण कराने के उनके आग्रह को राज्यपाल द्वारा ठुकरा देने के निर्णय पर सवाल उठाया था.

सुप्रीम कोर्ट की नौ-सदस्यीय एक पीठ में बोम्मई मामले में मार्च 1994 में अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया और राज्यों में केन्द्रीय शासन करने के सम्बन्ध में सख्त दिशा-निर्देश तय किए. निर्णय में कहा गया कि राष्ट्रपति किसी भी विधानसभा को सीधे भंग नहीं कर सकता, मात्र लंबित कर सकता है. बर्खास्तगी का आदेश तभी वैध होगा जब उस पर संसद के दोनों सदनों की सहमति मिल जाए. यदि दोनों सदन इस बर्खास्तगी पर सहमति नहीं देते हैं तो दो महीना पूरा होने पर बर्खास्तगी की घोषणा रद्द हो जायेगी और विधानसभा फिर से अस्तित्व में आ जाएगी. तब से राजनीतिक उद्देश्यों के लिए केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के प्रयोग पर लगभग रोक लग गई है और बोम्मई का नाम हमारे देश में लोकतांत्रिक और संघीय मूल्यों की मजबूती का पर्याय बन गया है.

बोम्मई मामले में अधिक जानकारी के लिए पढ़ें >> Bommai Case

यह उत्तर अधूरा है…इसमें और भी कुछ लिखा जा सकता है. इसलिए आप खुद से दिमाग लगाएँ और कमेंट में बताएँ कि आप इस उत्तर में और क्या-क्या जोड़ सकते हैं?

“संसार मंथन” कॉलम का ध्येय है आपको सिविल सेवा मुख्य परीक्षा में सवालों के उत्तर किस प्रकार लिखे जाएँ, उससे अवगत कराना. इस कॉलम के सारे आर्टिकल को इस पेज में संकलित किया जा रहा है >> Sansar Manthan

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