पूना सार्वजनिक सभा 1870 ई. के विषय में विस्तृत जानकारी

Dr. SajivaHistory, Modern History

पूना सार्वजनिक सभा (मराठी – पुणे सार्वजनिक सभा) की स्थापना 2 अप्रैल, 1870 ई. को महादेव गोविंद रानडे ने की थी. पूना सार्वजनिक सभा सरकार और जनता के बीच मध्यस्थता कायम करने के लिए बनाई गई थी. भवनराव श्रीनिवास राव इस संस्था के प्रथम अध्यक्ष थे. बाल गंगाधर तिलक, गोपाल हरि देशमुख, महर्षि अण्णासाहेब पटवर्धन जैसे कई प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों ने इस संगठन के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया. चलिए जानते हैं कि इस सभा (The Poona Sarvajanik Sabha) की स्थापना किन परिस्थितियों में हुई और इसके क्या परिणाम सामने आये.

पूना सार्वजनिक सभा के महत्त्वपूर्ण बिंदु

  1. सदस्यता प्राप्त करने के लिए प्रत्येक सदस्य को कम-से-कम 50 वयस्क व्यक्तियों की अनुशंसा पेश करनी पड़ती थी.
  2. इस संस्था में जमींदार, व्यापारी, अवकाश-प्राप्त सरकारी कर्मचारी, शिक्षक, वकील आदि थे.
  3. प्रत्येक सदस्य को एक दिन की आय संस्था को देनी पड़ती थी.
  4. इसके प्रमुख सदस्यों में गणेश वासुदेव जोशी, एस.एच. साठे, एस.एच. चिपलूणकर आदि थे.
  5. स्थानीय सदस्यों से लेकर विधान परिषद् और नगरपालिका के कार्य, जनकल्याण के कार्य आदि प्रश्नों को उठाने का प्रयास पूना सार्वजनिक सभा के द्वारा किया गया.
  6. स्थापना के प्रथम दो वर्षों में यह संस्था सक्रिय रही और कर-वृद्धि का विरोध किया.

कार्य

पूना सार्वजनिक सभा ने स्वदेशी आन्दोलन चलाने में पहल किया था. अकाल के समय राहत देने का काम किया और किसानों की स्थिति की जाँच के लिए समिति बनाने पर बल दिया. 1874 ई. में बंगाल के अकालपीड़ितों की सहायता के लिए रकम भेजी थी. 1875 ई. में लगभग 22 हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर कराकर एक आवेदनपत्र लन्दन भेजा गया जिसमें यह अनुरोध किया गया था कि ब्रिटिश संसद में भारतीयों के लिए लिए 16 सीट आरक्षित हों तथा यह अनुशंसा की गई थी कि 50 रूपया प्रत्यक्ष कर देनेवालों को मताधिकार दिया जाए.

पूना सार्वजनिक सभा ने बम्बई के अन्दर राजनीतिक चेतना को जाग्रत करने, जनता को संगठित कर उनमें देश-प्रेम की भावना उभारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. स्थानीय स्तर पर आपसी विवादों को निबटाने के लिए न्याय सभाएँ भी कायम की गयीं. सभा द्वारा पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया जिसमें भारत की वर्तमान दयनीय स्थिति का चित्रण और उसमें सुधार लाने की योजना पर प्रकाश डाला गया था.

कमजोर पक्ष

पूना सार्वजनिक सभा का कार्य सरकार की आँखों में शीघ्र ही खटकने लगा और सरकार के गुप्तचार विभाग द्वारा इसे राजद्रोही संघ कहा जाने लगा. यह सभा प्रगतिशील संस्था थी किन्तु किसानों और निम्न वर्ग के बीच महाराष्ट्र में इसकी पैठ नहीं हो सकी थी. वस्तुतः नया मध्यम वर्ग, जमींदार और व्यापारी ही इसमें प्रधान स्थान रखते थे.

1878 ई. के सम्मलेन में सार्वजनिक सभा द्वारा सरकार के सामने कई प्रश्नों को उठाया गया था जिनमें आबकारी कर, सैनिक व्यय में कटौती, भारत और इंग्लैंड के बीच व्यापारिक सम्बन्ध, शस्त्र-क़ानून, भारतीय संसद की स्थापना आदि मुख्य थे. पूना सार्वजनिक सभा अपने ढंग से सरकार और जनता के बीच एक सेतु की तरह काम करती रही. महाराष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं के बीच तालमेल की भावना थी.

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