लॉर्ड लिटन (1876-80 ई०) की आंतरिक नीतियाँ

Dr. SajivaModern History

अप्रैल, 1876 ई० में लॉर्ड नॉर्थव्रुक के स्थान पर लॉर्ड लिटन को भारत के गवर्नर-जनरल के पद पर नियुक्त किया गया. उस समय लॉर्ड लिटन के समक्ष दो मुख्य कठिनाइयाँ थीं और उन्हीं के कारण भारत में उसका शासन सफल नहीं हो सका. सर्वप्रथम, गवर्नर-जनरल का पद ग्रहण करने के पहले लिटन को भारत की परिस्थितियों को समझने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था और दूसरे, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डिजरैली ने उसे रूसी प्रभाव को रोकने और अफगानिस्तान के प्रति विशेष नीति अपनाने का आदेश दिया था. इस प्रकार लिटन को एक विशेष नीति को कार्य रूप में परिणत करने के लिए भेजा गया था और उसकी असफलता का यह एक महत्त्वपूर्ण कारण था.

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लॉर्ड लिटन का शासनकाल

लॉर्ड लिटन का शासनकाल आन्तरिक एवं वैदेशिक क्षेत्रों में उपलब्धि के दृष्टिकोण से परिणामरहित था. आन्तरिक दृष्टि से उसने भारतीयों के प्रति जो नीति अपनायी उससे भारतीयों में असन्तोष उत्पन्न हुआ. यद्यपि उसने राष्ट्रीय भावना की प्रगति में सहायता पहुँचायी थी. विदेश नीति की दृष्टि से उसकी अफगान नीति पूर्णतः निरर्थक सिद्ध हुई.

आन्तरिक नीति (Domestic Policy)

स्वतंत्र व्यापार की नीति

लॉर्ड लिटन स्वतंत्र व्यापार की नीति का समर्थक था. औद्योगिक क्रान्ति के कारण इंगलैण्ड उस समय उद्योग और व्यापार के क्षेत्रों में सम्पूर्ण विश्व का नेतृत्व कर रहा था. स्वतंत्र व्यापार की नीति उसके हित में थी. भारत से इंगलैण्ड को कच्चे माल की आवश्यकता होती थी और उसके बने हुए माल की अच्छा बाजार प्राप्त होता था. इसलिए, भारत सरकार का स्वतंत्र व्यापार की नीति को अपनाना इंगलैण्ड के उद्योग और व्यापार के हित में था. इंगलैण्ड के व्यापारी भारत-सरकार द्वारा लगाये गये विभिन्‍न आयात-निर्यात करों का विरोध कर रहे थे. अन्त में भारत-सचिव के आदेश और अपनी सम्मति से लिटन ने स्वतंत्र व्यापार की नीति को अपनाया और 92 वस्तुओं पर आयात-निर्यात कर समाप्त कर दिया गया. इस प्रकार लॉर्ड लिटन ने इंगलैण्ड के हित की पूर्ति के लिए भारत के हित का बलिदान कर दिया.

आर्थिक सुधार  

लॉर्ड लिटन ने आर्थिक सुधार की ओर भी ध्यान दिया था. उसने लॉर्ड मेयो की प्रान्तों को आर्थिक अधिकार देने की नीति का अनुकरण किया. लॉर्ड मेयो ने प्रान्तीय सरकारों को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से “आर्थिक विकेन्द्रीकरण” की नीति अपनायी थी. लिटन ने इस नीति को आगे बढ़ाया और लगान, स्टाम्प, कानून, न्याय आदि विषयों पर स्वेच्छा से व्यय करने का अधिकार दिया. इस व्यय की पूर्त्ति के लिए प्रान्तों को करों का कुछ भाग दिया जाता था. देशी रियासतों के नरेशों से नमक बनाने का अधिकार छीनकर केन्द्रीय सरकार को दिया गया और नमक के अवैध व्यापार को रोकने के उद्देश्य से सम्पूर्ण भारत में नमक पर समान कर लगाया गया.

अकाल की रोकथाम

1876-78 ई० की अवधि में बम्बई, मद्रास, हैदराबाद, मैसूर, पंजाब और मध्य भारत के अधिकांश भाग भीषण अकाल के शिकार हुए. लाखों लोगों की जानें गई और अकाल-पीड़ितों के लिए सरकार की ओर से पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गई थी. 1878 ई० में अकाल की व्यवस्था की जाँच के लिए रिचर्ड स्ट्रेची की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की गई. कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की कि अकाल के अवसर पर समर्थ एवं स्वस्थ व्यक्तियों को काम दिया जाय; असमर्थ एवं असहाय लोगों को सहायता दी जाय; प्रत्येक प्रान्त में एक स्थायी अकाल निधि की स्थापना की जाय तथा विभिन्‍न स्थानों पर रेलवे और नहरों की व्यवस्था की जाय जिससे अकाल की सम्भावना कम हो और अकाल की स्थिति में आसानी से सहायता पहुँचायी जा सके.

दरबार-समारोह

1876-78 ई० में भारत में भीषण अकाल पड़ा और हजारों व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी. अन्न के अभाव में अबला-वृद्ध-वनिता तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहे थे और ऐसा प्रतीत होता था कि शस्य-श्यामला भूमि श्मशान में परिणत हो जायेगी. अकाल की भयावह स्थिति के प्रति ब्रिटिश सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति से भारतीयों के बीच जब असन्तोष की आग प्रज्जवलित हो रही थी तभी लॉर्ड लिटन ने एक भव्य शाही दरबार का आयोजन किया जिसमें महारानी विक्टोरिया को विधिवत्‌ भारत-साम्राज्ञी घोषित किया गया. दरबार-समारोह के अवसर पर शान-शौकत और प्रतिष्ठा की रक्षा के नाम पर अत्यधिक धन बर्वाद किया गया. एक तरफ दरबार समारोह और दूसरी तरफ भीषण अकाल से मृत्यु के मुख में प्रवेश कर रहे हजारों-हजार भारतीयों के प्रति ब्रिटिश सरकार की उदासीन नीति ने भारतीयों के मन में क्षोभ का भाव पैदा कर दिया था. कलकत्ता के एक पत्रकार ने दरबार-समारोह की आलोचना करते हुए लिखा था कि “जब रोम में आग लग रही थी तब नीरो बाँसुरी बजा रहा था.” अंगरेजों के अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा भारतीयों को दरबार-समारोह से मिली.

प्रेस-अधिनियम

भारतीय समाचार-पत्रों की आलोचना से क्षुब्ध होकर लॉर्ड लिटन ने 1878 ई० में वर्नाक्यूलर ऐक्ट (Vernacular Act) पारित किया. इस अधिनियम के द्वारा समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गयी. भारत में स्वाभाविक रूप से इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई और इसे रैगिंग ऐक्ट (Ragging Act) या गला काटनेवाला कानून पुकारा जाने लगा. सारा देश आन्दोलन की लहर में डूबने-उतरने लगा. भारतीयों के बढ़ते हुए असन्तोष को देखकर लॉर्ड लिटन ने प्रेस-अधिनियम को रद्द कर दिया. पहली बार प्रबल जन-आन्दोलन के शक्तिशाली स्वरूप को देखकर ब्रिटिश सरकार को जनता की मांग के समक्ष झुकना पड़ा. भारतीयों की इस विजय ने राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्हें सक्रिय सहयोग के लिए प्रोत्साहित किया.

शस्त्र-अधिनियम (Arms Act)

लॉर्ड लिटन ने शस्त्र-अधिनियम पारित किया, जिसके अनुसार सरकार की पूर्व अनुमति के बिना हथियार रखना, लेकर चलना और व्यापार करना अपराध घोषित किया गया. इस अधिनियम के अनुसार भारतीयों के पास हथियार होना अवैध माना जाने लगा. यूरोपियन, ऐंग्लो-इण्डियन और कुछ सरकारी अधिकारियों पर यह नियम लागू नहीं किया गया. इसका एकमात्र उद्देश्य था, बहुसंख्यक भारतीयों के सशस्त्र विद्रोह पर प्रतिबन्ध लगाना.

सरकारी सेवा में पक्षपात

लॉर्ड लिटन के समय सरकारी सेवाओं से सम्बन्धित नीति में भी परिवर्तन हुआ. 1833 ई० के चार्टर ऐक्ट की ग्यारहवीं धारा के अनुसार कम्पनी-सरकार ने घोषणा की कि किसी पद पर नियुक्ति का आधार योग्यता होगा और जन्म, वर्ग, जाति को कोई प्राथमिकता नहीं दी जाएगी. 1853 ई० के आदेशपत्र के द्वारा सरकारी सेवा में उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए लन्दन में एक परीक्षा की व्यवस्था की गयी. इस प्रकार सिद्धान्ततः भारतीयों को उच्च सरकारी सेवा में स्थान पाने का अधिकार दिया गया था किन्तु अंगरेज शासकों की पक्षपातपूर्ण नीति के कारण व्यवहार में यह सम्भव नहीं हो पाया. लॉर्ड लिटन भारतीयों को इस सुविधा से वंचित करना चाहता था, इसलिए उसने भारतीयों के लिए एक पृथक्‌ सार्वजनिक सेवा की व्यवस्था की. प्रान्तीय सरकारों की सिफारिश और भारत-सचिव की स्वीकृति के पश्चात्‌ कुछ विशेष परिवारों के व्यक्तियों को इस सेवा में लिया जा सकता था. यद्यपि लॉर्ड लिटन की योजना आठ वर्षों के बाद समाप्त हो गई, फिर भी उसने भारतीयों को उच्च सेवाओं में प्रवेश करने से रोक दिया. उसने भारतीय लोक सेवा में प्रवेश पाने की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी. इससे भारतीय नवयुवकों के लिए प्रतियोगिता परीक्षा में सम्मिलित होना और उसमें सफलता प्राप्त करना कठिन हो गया.

लॉर्ड लिटन के उपर्युक्त कार्यों का एकमात्र उद्देश्य भारतीयों को दबाकर अंगरेजी साम्राज्य की सुरक्षा करना था. उसकी नीति से भारतीयों में तीव्र असन्तोष उत्पन्न हुआ. भारतीयों की दृष्टि से लॉर्ड लिटन एक अत्यन्त ही प्रतिक्रियावादी गवर्नर-जनरल था. 1880 ई० में वह स्वदेश लौट गया.

Tags : Lord lytton ki nitiyan. Sudhar (reforms), domestic policy, vernacular act, arms act, NCERT notes for UPSC in Hindi.

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