गोवा नागरिक संहिता (Goa Civil Code – GCC)

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UPSC के दृष्टिकोण से, निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण हैं:

प्रारंभिक स्तर: समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code – UCC), गोवा नागरिक संहिता (Goa Civil Code – GCC)

मेन्स स्तर: यूसीसी डिबेट

goa civil code

गोवा नागरिक संहिता

  • गोवा नागरिक संहिता, नागरिक कानूनों का एक समूह है जो तटीय राज्य के सभी निवासियों को उनके धर्म और जातीयता के बावजूद नियंत्रित करता है.
  • यूनीफॉर्म सिविल कोड का अर्थ होता है कि तलाक, विवाह, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे जैसे मामलों में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून होना.
  • वर्तमान समय में गोवा अकेला राज्य है जहाँ खुद का समान नागरिक संहिता लागू है.
  • देशभर में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने के आह्वान के बीच यह चर्चाओं में आया है.

इतिहास

गोवा में जब पुर्तगाली शासन था, तब वहां पुर्तगाली सिविल कोड लागू किया गया. यह वर्ष 1867 की बात है. तब तक भारत में ब्रिटिश राज में भी सिविल कोड नहीं बनाया गया था. परन्तु पुर्तगाल सरकार ने ऐसा कर दिया.

प्रावधान

  • इस कानून के अंतर्गत शादी का रजिस्ट्रेशन सिविल अथॉरिटी के पास कराना आवश्यक है. इसके अंतर्गत अगर तलाक होता है तो महिला भी पति कि हर संपत्ति में आधी की हकदार है. इसके अतिरिक्त अभिभावकों को अपनी कम से कम आधी संपत्ति का मालिक अपने बच्चों को बनाना होगा जिसमें बेटियां भी शामिल होंगी.
  • इस यूनिफॉर्म सिविल कोड में मुस्लमों को बहुविवाह की अनुमति नहीं दी गई है परन्तु हिंदुओं को विशेष परिस्थिति में इसकी छूट दी गई है. अगर किसी हिंदू की पत्नी 21 वर्ष की उम्र तक किसी बच्चे को जन्म नहीं देती है या फिर 30 की उम्र तक लड़के को जन्म नहीं देती है तो वह दूसरा विवाह कर सकता है.

गोवा मॉडल चर्चा में क्यों है?

  • यह देखा गया कि राज्य के अधिकांश लोग इस मॉडल से “इससे काफी खुश और संतुष्ट हैं”.
  • यह “समान नागरिक संहिता” के शांतिपूर्ण क्रियान्वयन का जीवंत उदाहरण है.
  • हालाँकि, विवाह और संपत्ति के विभाजन से संबंधित कानून में कुछ अजीबोगरीब खंड थे, जो पुराने थे और समानता के सिद्धांत पर आधारित नहीं थे.

समान नागरिक संहिता (UCC) के बारे में

समान नागरिक संहिता (UCC) पर्सनल लॉ के सम्बन्ध में धार्मिक भेद-भावों का अंत करता है तथा सभी नागरिकों के लिए एक कानून की वकालत करता है. संविधान के भाग-4 (नीति निदेशक तत्व) अनुच्छेद 44 में निर्देशित है कि राज्य, भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा. उल्लेखनीय है कि वर्तमान में सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं. विवाह, संपत्ति और गोद लेने आदि में विभिन्‍न धर्म के लोग अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं. मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लू है. हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं.

समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में तर्क

  • संविधान निर्माण के पश्चात् से ही समान नागरिक संहिता को लागू करने की मांग उठती रही है. परन्तु, जितनी बार मांग उठी है उतनी ही बार इसका विरोध भी हुआ है. समान नागरिक संहिता के पक्षधर यह मानते हैं कि भारतीय संविधान में नागरिकों को कुछ मूलभूत अधिकार प्रदान किये गए हैं.
  • अनुच्छेद 14 के अंतर्गत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक से भेदभाव करने की मनाही और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार लोगों को दिया गया है.
  • परन्तु, महिलाओं के मामले में इन अधिकारों का लगातार हनन होता रहा है. बात चाहे तीन तलाक की हो, मंदिर में प्रवेश को लेकर हो, शादी-विवाह की हो या महिलाओं की स्वतंत्रता को लेकर हो, कई मामलों में महिलाओं के साथ भेद-भाव किया जाता है.
  • इससे न केवल लैंगिक समानता को खतरा है बल्कि, सामाजिक समानता भी सवालों के घेरे में है. अवश्य ही, ये सारी प्रणालियाँ संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है. इसलिए, समान नागरिक संहिता के समर्थक इसे संविधान का उल्लंघन बता रहे हैं.
  • दूसरी ओर, अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुस्लिम समाज समान नागरिक संहिता का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं. संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देते हुए कहा जाता है कि संविधान ने देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया है. इसलिये, सभी पर समान कानून थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करने जैसा होगा.
  • मुस्लिमों के अनुसार, उनके निजी कानून उनकी धार्मिक आस्था पर आधारित हैं इसलिये समान नागरिक संहिता लागू कर उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न किया जाए.
  • मुस्लिम विद्वानों के मुताबिक शरिया कानून 1400 वर्ष पुराना है, क्योंकि यह कानून कुरान और पैगम्बर मोहम्मद साहब की शिक्षाओं पर आधारित है.
  • इसलिए, यह उनकी आस्था का विषय है. मुस्लिमों की चिंता है कि 6 दशक पहले उन्हें मिली धार्मिक स्वतंत्रता शनैः शनैः उनसे छीनने का प्रयास किया जा रहा है. यही वजह है कि यह रस्साकशी कई दशकों से चल रही है.

समान नागरिक संहिता को लागू करने की आवश्यकता क्‍यों?

  • समान नागरिक सहिंता के न लागू होने से समता के मूल अधिकार का उल्लंघन होता है.
  • कानूनों की एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को भी बल मिलेगा.
  • अनुच्छेद 21 के अंतर्गत महिलाओं को प्रदत्त गरिमामय, स्वतंत्र जीवन सुनिश्चित करने के लिए समान नागरिक संहिता आवश्यक है. क्योंकि इसके अभाव में देखा गया है कि तीन तलाक मन्दिर प्रवेश इत्यादि मामलों में महिलाओं के साथ लैंगिक पक्षपात किया जाता रहा है.
  • समान संहिता विवाह, विरासत और उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानूनों को समाप्त कर स्पष्टता लाएगी.

समान नागरिक संहिता को लागू करने के समक्ष चुनौतियाँ

  • कुछ विशेष वर्ग समान नागरिक संहिता को अपनी धार्मिक स्वतंत्रता के लिए उचित नहीं मानते.
  • संविधान निर्माताओं ने भारतीय समाज की जटिल परिस्थितियों की वजह से ही समान नागरिक संहिता को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल किया था, जो कि केवल सलाहकारी प्रवृति के हैं एवं विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं.
  • विधि आयोग ने वर्ष 2018 की रिपोर्ट में समान नागरिक सहिंता की आवश्यकता को ख़ारिज कर दिया था. इसकी बजाय विधि आयोग ने पर्सनल लॉ को सहिंताबद्ध करने की अनुशंसा की है.

आगे की राह

  • दरअसल, भारतीय संविधान भारत में विधि के शासन की स्थापना की वकालत करता है. ऐसे में आपराधिक मामलों में जब सभी समुदाय के लिए एक कानून का पालन होता है, तब सिविल मामलों में अलग कानून पर सवाल उठना उचित है.
  • हमें यह समझना होगा कि निजी कानूनों में सुधार के अभाव में न तो महिलाओं की परिस्थिति बेहतर हो पा रही है और न ही उन्हें सम्मानपूर्वक जीने का अवसर मिल पा रहा है.
  • दरअसल, सबसे बड़ी जनसंख्या तो उन मुस्लिम महिलाओं को मिल सकेगी जो बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं का विरोध करती रहीं हैं.
  • इससे न केवल समानता जैसे संवैधानिक अधिकार को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा बल्कि, समाज-सुधार जैसी पहलें भी सफल हो सकेंगी.
  • समझना होगा कि जब हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होगा तो, देश के सियासी दल वोट बैंक वाली सियासत भी नहीं कर सकेंगे और भावनाओं को भड़का कर वोट मांगने की रिवायत पर भी लगाम लग सकेगा.
  • लेकिन, दूसरी ओर विधि आयोग की सलाह और अल्पसंख्यकों की चिंता पर भी हमें गौर करना होगा. जब संविधान में जिक्र होने के बावजूद विधि आयोग जैसी संस्था समान नागरिक संहिता को जरूरी नहीं मानती है तो, यकीनन इसमें देश की विविधता को महफूज करने की नीयत होगी. आयोग ने अगर समान नागरिक संहिता लाने से पहले निजी कानूनों में सुधार की बात कही है तो, यकीनन आयोग चाहता है कि कड़ी दर कड़ी कानून बना कर सुधार की ओर बढ़ा जाए.
  • समझना होगा कि मुस्लिमों के पर्सनल लॉ का 1400 साल पुराना होने का अर्थ है- आस्था का लंबा इतिहास होना. जाहिर है, इसे एक झटके में समान नागरिक संहिता लागू कर खत्म नहीं किया जा सकता. अमूमन भारत के सभी निजी कानून आस्था पर आधारित हैं और उनमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक तब्दीली की आवाज धर्म विशेष के अंदर से नहीं आ जाती है.
  • हमें समझना होगा कि अगर राजा राममोहन राय सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठा सके और उसका उन्मूलन करने में कामयाब हो सके तो, सिर्फ इसलिये कि उन्हें अपने धर्म के भीतर की कुरीतियों की फिक्र थी.
  • इसलिए, धर्म के रहनुमाओं को ईमानदारी से पहल करने की आवश्यकता है. हमें यह भी समझना होगा कि भारत जैसे देश में संस्कृति की बहुलता होने से न मात्र निजी कानूनों में बल्कि रहन-सहन से लेकर खान-पान तक में विविधता देखी जाती है और यही इस देश की सुन्दरता भी है. ऐसे में आवश्यक है कि देश को समान कानून में पिरोने की पहल अधिकतम सर्वसम्मति की राह अपना कर की जाए. ऐसे प्रयासों से बचने की आवश्यकता है जो समाज को ध्रुवीकरण की राह पर ले जाएँ और सामाजिक सौहार्द्र के लिए चुनौती पैदा कर दें.

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