बाल गंगाधर तिलक (1856-1920)

Dr. Sajiva#AdhunikIndia

कांग्रेस के उग्रवादी नेताओं में सर्वप्रथम स्थान लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को दिया जाता है. उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्रता और गति प्रदान की. भारतीय इन्हें श्रद्धा और प्यार से ‘लोकमान्य’ कहते थे. उनका जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नगीरि नगर में एक उच्च चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था. तिलक के कार्यकाल को सुविधानुसार दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- 1880 से 1900 तक तथा 1900 से 1920 तक.

बाल गंगाधर तिलक का प्रारम्भिक जीवन

बाल गंगाधर तिलक

प्रथम चरण में तिलक की गतिविधियाँ मुख्यतः महाराष्ट्र तक ही सीमित रहीं, परन्तु दूसरे चरण में उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अग्रणी भूमिका निभाई. सर्वप्रथम उन्होंने भारतीयों के दिमाग से हीनता की भावना मिटाने का निश्चय किया. इस उद्देश्य से उन्होंने देशभक्ति और नैतिकता की शिक्षा पर बल दिया. उन्हीं के प्रयासों से ‘‘दक्कन एजुकेशन सोसायटी’’ एवं ‘‘फरग्यूसन कॉलेज’’ की स्थापना हुई. शिक्षण संस्थाओं की स्थापना के अतिरिक्त उन्होंने जनमत को जाग्रत करने के लिए केसरी (मराठी दैनिक) और मराठा (अंग्रेजी साप्ताहिक) का प्रकाशन आरंभ किया. इन समाचार पत्रों में उन्होंने भारतीय संस्कृति की सराहना की तथा पश्चिमी सभ्यता के अंधाधुंध अनुकरण की प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाई. भारतीयों के गौरव को बढ़ाने के लिए आर्यों की जन्मभूमि पर विद्वतापूर्ण लेख लिखे. वे भारतीयों को नैतिकता और कर्म मार्ग की शिक्षा देने के लिए गीता की व्याख्या भी करते थे.

बाद में जब वह मांडले जेल में थे तब उन्होंने मराठी में गीता पर टीका लिखी, जो ‘गीता रहस्य’ के नाम से जानी जाती है. तिलक ने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति एवं जनता को संगठित करने के लिए धार्मिक मनोभावना को भी उभारने का प्रयास किया. इस उद्देश्य से उन्होंने ‘गणपति उत्सव’ एवं ‘शिवाजी उत्सव’ बड़े संगठित पैमाने पर मनाने की व्यवस्था की. उन्होंने गोहत्या विरोधी समितियाँ, लाठी और अखाड़ा क्लब भी स्थापित किए.

राजनीतिक जीवन

1900 में तिलक कांग्रेस से प्रभावित होकर इसमें सम्मिलित हुए, परन्तु आरंभ से ही उन्हें कांग्रेस की नरमपंथी नीतियों में विश्वास नहीं था. उनका विचार था कि कागंसे्र का लक्ष्य अपने लिए स्वयं कानून बनाने का अधिकार प्राप्ति होना चाहिए, न कि ऐसे सामाजिक सुधार जिन्हें स्वाधीनता मिलने तक टाला जा सकता था. तिलक ने कांग्रेस पर ऐसे कार्यक्रम रखने के लिए दबाव डाला, जिससे उसे जन समर्थन प्राप्त हो सके. वे यह भी मानते थे कि जनता को और कांग्रेस को बड़े पैमाने पर अंग्रेजी सरकार का प्रतिरोध करने के लिए तैयार होना चाहिए. तिलक ने इस उद्देश्य से राष्ट्रीय शिक्षा, स्वदेशी, बहिष्कार और स्वराज्य का चार सूत्री कार्यक्रम पेश किया. 1897-98 में जब सरकार ने तिलक को 18 मास के कारावास की सजा दी, तो उन्होंने सहर्ष इसे स्वीकार कर लिया.

1907 के कांग्रेस के सूरत अधिवेशन के बाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को अपने साथियों सहित कांग्रेस छोड़कर अलग होना पड़ा. उन्होंने कांग्रेस से अलग उग्रवादी आन्दोलन जारी रखा. कांग्रेस की आतंरिक फूट का लाभ उठाकर 1908 में सरकार ने तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया. उन्हें 6 वर्ष के कारावास की सजा दी गयी और मांडले निर्वासित कर दिया गया. 1910 ई. में बाल गंगाधर तिलक ने लन्दन के टाइम्स अखबार के वैदेशिक संवाददाता तथा ‘इंडिया अनरेस्ट’ के लेखक वैलेंटाइन शिरोल के विरुद्ध मानहानि का मुकदमा दायर किया.

बाल गंगाधर तिलक 1914 में मांडले से वापस आए. उस समय भारत और विश्व की राजनीतिक स्थिति अत्यंत गंभीर थी. प्रथम विश्वयुद्ध का खतरा मंडरा रहा था. मुस्लिम लीग का भारतीय राजनीति में उदय हो चुका था, कांग्रेस निष्क्रिय हो चुकी थी. ऐसी स्थिति में लोकमान्य तिलक आपसी फूट को समाप्त कर पुनः स्वतंत्रता आन्दोलन की गति तीव्र करना चाहते थे. अतः एनी बेसेंट के प्रयासों के फलस्वरूप तिलक अपने सहयोगियों के साथ पुनः 1916 में लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस में शामिल हुए. वे कांग्रेस के अंदर ही एक ‘‘होमरूल लीग’’ बनाना चाहते थे पर कांग्रेस की अस्पष्ट नीति क के कारण उन्हें सितम्बर 1916 में एक अलग होमरूल लीग बनाने को बाध्य होना पड़ा. उन्होंने अपने समाचार पत्रों द्वारा जनता को इसके उद्देश्यों से परिचित कराया तथा महाराष्ट्र और मध्य भारत में होमरूल आन्दोलन (Home rule movement) को बढ़ावा दिया. उन्होंने घोषणा की कि, ‘‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे मैं लेकर रहूँगा.’’

जब सरकार ने 1917 में संवैधानिक सुधारों की घोषणा की, तो उन्होंने इसका स्वागत किया. उनका विचार था कि सरकार के साथ सहयोग कर गृह शासन को प्राप्त किया जा सकता था. उन्होंने खिलाफत आन्दोलन को भी समर्थन दिया, परन्तु जब गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन आरंभ करने का निश्चय किया तो लोकमान्य तिलक ने अप्रैल 1920 में आगामी चनुाव लड़ने के लिए ‘‘कांग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी’’ की स्थापना की. वे अचानक बीमार हो गये और 1 अगस्त 1920 को उनकी मृत्यु हो गयी. 1 अगस्त को ही गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन की घोषणा की. एक युग का अंत और एक नए युग का आरंभ एक ही साथ हुआ.

निःसंदेह तिलक भारत की एक महान् विभूति थे. स्वयं गाँधीजी ने उनका महत्त्व स्वीकार किया था. तिलक की मृत्यु के बाद ‘‘यंग इंडिया’’ के अपने लेख में गाँधीजी ने स्वीकार किया कि उनके समय में जनसाधारण पर जितना प्रभाव बाल गंगाधर तिलक का था, उतना अन्य किसी का नहीं. जिस दृढत़ा और स्थिरता से लोकमान्य ने स्वराज्य के संदेश का प्रचार किया, वैसा किसी ने नहीं किया. वस्तुतः तिलक एक यर्थाथवादी राजनीतिज्ञ और उच्चकोटि के दार्शनिक थे.

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