हड़प्पा संस्कृति एवं सामाजिक-आर्थिक जीवन

Dr. SajivaCulture

हड़प्पा सभ्यता भारत को प्रथम प्रमाणित सर्वश्रेष्ठ सभ्यता है. इसके लिए साधारणतः दो नामों का प्रयोग होता है: “सिन्धु-सभ्यता” या “सिन्धु घाटी की सम्यता” और हड़प्पा संस्कृति. ये दोनों नाम पर्यायवाची हैं एवं इनका समान अर्थ हैं.

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हड़प्पा का नामकरण

इनमें से प्रत्येक शब्द की एक विशिष्ट पृष्ठभूमि है. सिन्धु हमारे देश की एक नदी है जो हिमालय पर्वत से निकलती है और पंजाब तथा सिंध प्रान्त में बहुती हुई अरब सागर में गिरती है. घाटी उस प्रदेश को कहते हैं जो नदी के दोनों किनारों पर स्थित होती है तथा उसी नदी के जल से संचित होता है. इसलिए सिन्धु घाटी का तात्पर्य सिन्धु नदी के दोनों किनारों पर स्थित उस भूभाग से है जो उसके जल से सींचा जाता है. सभ्यता का तात्पर्य किसी क्षेत्र के लोगों की संस्कृति के विकास की वह अवस्था (stage) जब उसमें जटिलता और विविधता आ जाती है और वह पूर्णतः संगठित हो जाती है. अतएव साधारण शब्दों में कहा जा सकता है. “सिन्धु-सभ्यता” अथवा “सिन्धु घाटी की सभ्यता” का तात्पर्य हुआ – सिन्धु नदी के दोनो किनारों पर स्थित भूभाग या प्रदेश में रहने वाले लोगों का सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन.

शुरू-शुरू में 1921 में जब पश्चिमी पंजाब के हड़प्पा स्थल पर इस सभ्यता का उत्खनन से जानकारी मिली और 1922 ई० में सिन्ध में मोहेनजोदड़ो की खुदाई हुई तो विद्वानों ने सोचा कि यह सभ्यता पूर्णतया सिन्धु घाटी तक ही सीमित थी. अतः इस सभ्यता के लिए “सिन्धु-सभ्यता” या “सिन्धु घाटी की सभ्यता” संज्ञाओं का ही प्रयोग उचित समझा गया. परन्तु धीरे-धीरे अनेक नए स्थलों की खुदाई हुई. नए स्थलों में से अनेक स्थल सिन्धु घाटी की सीमाओं के पार दूर-दूर तक स्थित थे. इससे पता चला कि यह सभ्यता दूर तक फैली हुई थी. अतः विद्वानों ने इसे “सिन्धु सभ्यता” या “सिन्धु-घाटी की सभ्यता कहना उचित नहीं समझा तथा इसके लिए “हड़प्पा संस्कृति” जैसी गैर-भौगोलिक शब्द के प्रयोग का निर्णय किया गया. हड़प्पा इस सभ्यता से सम्बन्धित सर्वप्रथम ज्ञात स्थल होने के साथ-साथ इसका सबसे बड़ा नगर है. इस नगर के सर्वाधिक विशाल आकार के कारण विद्वान इसे इस संस्कृति के क्षेत्र की राजधानी होने का अनुमान भी लगाते हैं. इसलिए सिन्धु सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति कहना सर्वथा उचित है.

हड़प्पा संस्कृति का भौगोलिक विस्तार

हड़प्पा संस्कृति का उदय भारतीय उपमहाखण्ड के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ. इसका विस्तार पंजाब, सिन्ध, राजस्थान, हरियाणा, जम्मू, गुजरात, बलूचिस्तान, उत्तरी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी अफगानिस्तान तक था. यह समूचा क्षेत्र एक त्रिभुजाकार दिखाई देता है. हड़प्पा संस्कृति के विस्तार का क्षेत्रफल लगभग 1,299,600 वर्ग किलोमीटर बताया जाता है. यह क्षेत्र प्राचीन नील घाटी की मिश्री सभ्यता तथा दजला-फरात में पनपी मैसोपाटामिया की सभ्यता के क्षेत्रों से भी बड़ा है.

सिन्धु सभ्यता या हड़प्पा संस्कृति के स्थल (नीचे दिए गये मानचित्र को ध्यान से देखिए)

अब निम्नलिखित क्षेत्रों या स्थलों की चर्चा करते हैं –

पश्चिमी पंजाब – इस क्षेत्र का केवल मात्र लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल हड़प्पा है जो रावी के सूखे मार्ग पर स्थित है.

सिन्धु – इस क्षेत्र में मोहनजोदड़ो, चान्हूदड़ो, जुडेरजोदड़ो (कच्छ मैदान में), अमरी, आदि प्रमुख स्थल हैं.

बलूचिस्तान – इस क्षेत्र में तीन स्थल महत्त्वपूर्ण हैं: सुतकागेंडोर (दश्क नदी के तट पर), सोतका फोह (शादीकोर के तट पर), बानाकोट (विन्दार नदी के तट पर) हैं.

उत्तर-पश्चिमी सीमान्त – गोमल घाटी में केन्द्रित गूमला नामक स्थल अधिक महत्त्वपूर्ण हैं.

बहावलपुर – सूखी हुई सरस्वती नदी के मार्ग पर स्थित कुडवालाथेर नामक स्थल महत्त्वपूर्ण है.

पूर्वी पंजाब – आज तक उत्खननों में प्राप्त इस क्षेत्र में तीन स्थल लोकप्रिय हैं. वे हैं – रोपड़, संघोल तथा चण्डीगढ़ के समीप के स्थल.

हरियाणा – इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल बनवाली (जिला हिसार) है.

जम्मू – इस क्षेत्र में माँदा नामक (अखनूर के समीप) स्थल प्राप्त हुआ है.

उत्तर-प्रदेश – यहां दो स्थल प्राप्त हुए हैं. प्रथम मेरठ का आलमगीरपुर तथा दूसरा सहारानपुर जिले में हुलास है

 राजस्थान – इस क्षेत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल कालीबंगा है. यह स्थान गंगानगर जिले में आता है

गुजरात – इस राज्य में कई स्थल प्राप्त हुए हैं लेकिन उनमें दो अधिक मशहूर हैं. काठियावाड़ का लोथल स्थल (बन्दरगाह) तथा कच्छ में स्थित सुरकोतड़ा अधिक प्रसिद्ध है.

हड़प्पा संस्कृति का काल

हड़प्पा संस्कृति कितने वर्ष पुरानी है? इस बारे में एक निर्णय लेने में विद्वानों को अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है. इसका कारण यह है कि उस समय जो लिपि प्रचलित थी उसको अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है. अतः हमें हड़प्पा संस्कृति के काल निर्धारण के लिए ठोस एवं विश्वसनीय प्रमाण नहीं मिलते और हमें हड़प्पा संस्कृति का काल निर्धारण अनुमान के आधार पर ही करना होता है. इस अनुमान का आधार खुदायी में प्राप्त सामान व खण्डहर हैं.

अर्नेस्ट मैके तथा अन्य विद्वानों ने हड़प्पा संस्कृति का काल लगभग 4009 ई.पू ठहराया है. लेकिन अधिकांश भारतीय विद्वान इस सभ्यता को 2500 ई.पू के लगभग विकसित हुई मानते हैं. बगदाद तथा एलम की खुदायी में प्राप्त मुहरों से अनुमान लगाया जाता है कि हड़प्पा संस्कृति मैसोपोटामिया सभ्यता की समकालीन थी. अगर इस तथ्य को सही मान लिया जाये तो हड़प्पा संस्कृति का काल 2,800 ई० पू० से 2,500 ई.पू. के मध्य होता है.

नि:संदेह हड़प्पा संस्कृति कांस्ययुगीन संस्कृति है क्योंकि यहाँ के निवासी लोहे का प्रयोग नहीं करते थे. भारत में सर्वप्रथम लोहे का प्रयोग आर्यों ने किया. सिन्धुवासी तांबा, टिन एवं दोनों धातुओं को मिलाकर कांस्य धातु का प्रयोग करते थे.

हड़प्पा संस्कृति के निर्माता

हड़प्पा संस्कृति के निर्माता कौन थे? इस जटिल प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर देने में अभी तक इतिहासकार सफल नहीं हुए हैं. विदित प्रमाणों के आधार पर यह तो स्पष्ट ही है, कि इस संस्कृति के प्रधान नगरों की आबादी मिश्रित थी. व्यापार, नौकरी करने और अनेक शिल्पकलाओं को सीखने आदि के उद्देश्यों से अनेक व्यवसायों, नसलों और जातियों के लोग इन नगरों में आकर निवास करते होंगे.

कर्नल स्यूअल तथा डा० गुहा जैसे विद्वानों के मतानुसार इन नगरों में प्राप्त हुए अस्थि-पंजरों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि इनके निवासी चार विभिन्‍न नस्लों के थे. ये नस्ल – आस्ट्रेलोअड, भूमध्यसागरीय, मंगोलियन और अल्पाइन थीं. इनमें से अन्तिम दो नस्लों अर्थात् मंगोलियन तथा अल्पाइन नस्ल के लोगों की केवल एक खोपड़ी हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों में प्राप्त हुई. इससे निष्कर्ष निकलता है कि इन नस्‍लों के लोग सिन्धु घाटी के क्षेत्र में बहुत कम संख्या में निवास करते थे. विद्वानों ने अवशेषों के आधार पर यह भी लिया है कि सिन्धु क्षेत्र में भूमध्यसागरीय नस्ल के लोगों की संख्या सबसे अधिक थी. संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं का विकास इसी नस्ल ने किया. भारत के द्रविड़ लोगों का सम्बन्ध इसी नस्ल की एक शाखा आइबीरियन से जोड़ा जाता है. कुछ विद्वान हड़प्पा संस्कृति के निर्माता अनार्यों या द्रविड़ों को मानते हैं. उनका कहना है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक नगरों में जो मकान मिले हैं, उनके दरवाजों की लम्बाई कम है जबकि आर्य लम्बे कद के थे. दूसरा, आर्यों के जीवन में घोड़े एवं गाय का बहुत महत्त्व था. जबकि इन जानवरों के अवशेष हड़प्पा संस्कृति की खुदाई में बहुत कम प्राप्त हुए हैं. तीसरा, हड़प्पा संस्कृति के लोग सांड को पवित्र समझकर पूजते थे, दक्षिण भारत में आज भी द्रविड़ इसको पूजते हैं.

हड़प्पा संस्कृति की सामान्य विशेषताएँ

हड़प्पा संस्कृति भारत की ऐसी महान, प्राचीन भौर उन्नत सभ्यता थी जिसकी अनेक विशेषताएं उसे तत्कालीन अन्य सभ्यताओं की तुलना में श्रेष्ठ साबित करती हैं.

उसी खुदाई में प्राप्त सामग्री के आधार पर इस संस्कृति की निम्न महत्त्वपूर्ण विशेषताओं की जानकारी हमें प्राप्त होती है –

नगर योजना और इमारतें

हड़प्पा संस्कृति की एक अद्भुत विशेषता इसकी नगर योजना थी. यद्यपि अब तक हड़प्पा संस्कृति से सम्बन्धित 250 से भी अधिक स्थलों का उद्घाटन हो चुका है लेकिन इनमें से छह स्थलों को ही नगर माना जाता है. वे हैं :- हड़प्पा, मोहजोदड़ो, चान्हुदड़ो, लोथल, कालीबंगा तथा बनबाली. इनमें दो नगर (हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो) सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं. ये दोनों नगर अब पाकिस्तान में हैं. इन दोनों में करीब 483 किलोमीटर का फासला है. इन दोनों नगरों को सिन्धु नदी परस्पर जोड़ती है. इसमें अपने दुर्ग थे जहां सम्भवतः शासक वर्ग के सदस्य रहते थे. हड़प्पा संस्कृति के प्रसिद्ध नगरों एवं इमारतों का विस्तृत वर्णन दे देना उचित प्रतीत होता है.

यह पढ़ें > सिन्धु घाटी की  नगर योजना

हड़प्पा

विद्वानों की राय है कि हड़प्पा नगर आकार में सभी नगरों से बड़ा था. इसे सुव्यवस्थित योजना के अनुसार बनाया गया था और यहां की आबादी सघन थी. इसमें दो खण्ड थे: पूर्वी और पश्चिमी. यहां की दो सड़के सीधी व चौड़ी थीं जो एक-दूसरे को समकोण काटती थी. इस नगर के चारों तरफ एक विशाल दीवार बनी हुई थी. यहां के लोग पक्की ईटों के मकानों में रहते थे. इस नगर की सड़कें व गलियां इस प्रकार बनायी गई थीं कि हवा चलने से वे अपने-आप स्वच्छ हो जाती थीं. हड़प्पा के मकान मोहनजोदड़ो के मकान से छोटे थे. हड़प्पा में एक विशाल इमारत मिली है. सम्भवत: यह एक किला था. किले में प्रवेश का मुख्य द्वार उत्तर में था. इस शहर के मध्य में एक अन्न भंडार तथा श्रमिक आवास और ईटों से जुड़े गोल चबूतरे थे. सामान्‍य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान भी प्राप्त हुआ है.

मोहनजोदड़ो

हड़प्पा की भांति यह नगर भी योजनाबद्ध तरीके से बनाया गया था. यह स्थल, जिसका आकार लगभग एक वर्गमील है, दो खण्डों में विभाजित है: पश्चिमी और पूर्वी. पश्चिमी खण्ड अपेक्षाकृत छोटा है. इसका सम्पूर्ण क्षेत्र गारे और कच्ची इंटों का चबूतरा बनाकर ऊँचा-उठाया गया है. सारा निर्माण कार्य इस चबूतरे के ऊपर किया गया है. मोहनजोदड़ो की मुख्य सड़क 10 मीटर चौड़ी तथा 400 मीटर लम्बी थी. यहां के मकान हड़प्पा से बड़े होते थे जो सड़कों के किनारे, सीधी पंक्ति में पक्की ईंटों से बनाये जाते थे. यद्यपि अधिकतर मकान एक मन्जिल के थे किन्तु कुछ मकानों में एक से अधिक मंजिलें थीं. प्रत्येक मकान में कुआँ और स्नानगार थे. घरों का गन्दा पानी ढकी हुई नालियों द्वारा आधुनिक ढंग से बाहर निकाल दिया जाता था.

चान्हूदड़ो

इस बस्ती के थोड़े-से ही हिस्से का उत्खनन हुआ है. यहां जो महत्त्वपूर्ण निर्माण-कार्य पाया गया, उसमें एक मनके बनाने का कारखाना भी था.

लोथल

इस नगर की बस्ती एक दीवार से घिरी हुई थी. इसमें एक इमारत मिली है जो कुछ पुरातत्वविदों के अनुसार एक बन्दरगाह थी. यह इस बात की ओर संकेत करता है कि लोथल एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र रहा होगा जहां विदेशी नावें भी आती होंगी.

कालीबंगा

यह स्थान घग्घर (सरस्वती) नदी के बाएं किनारे पर स्थित है. इसमें दो टीले मिले हैं: पूर्वी टीला और पश्चिमी टीला. वहाँ पर कुछ स्नानगार, कुँए, अग्नि-कुंड तथा मिट्टी के बर्तन मिले हैं. कालीबंगा के पूर्वी टीले की योजना मोहनजोदड़ो की योजना से मिलती-जुलती है, परन्तु इन दोनों में अंतर यह है कि कालीबंगा के घर कच्ची इंटों के बने हुए थे ओर वहां कोई स्पस्ट घरेलू या शहरी जल-निकास प्रणाली भी नहीं थी. इस नगर के दक्षिण भाग में इंटों के चबूतरे हैं. सम्भवत: इनका सम्बन्ध धान्य-कोठारों से रहा होगा. इस शहर के अनेक घरों में अपने-अपने कुंए थे. घरों का पानी बाहर सड़कों तक आता था जहां इसके नीच मोरियाँ बनी हुई थीं.

बनवाली

हरियाणा के हिसार जिले में मिला यह नगर सुरकोतडोर और कालीबंगा के समान योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया.

पक्के ओर सुन्दर भवन

हड़प्पा संस्कृति के नगरों के मकान सड़कों के किनारे बने हुए थे ओर इन्हें बनाने में पक्की इंटें लगायी गयी थीं. हड़प्पा संस्कृति के नगरों में पक्‍क़ी ईटों का प्रयोग एक अद्भुत बात है, क्योंकि मिश्र के समकालीन भवनों में मुख्यतः धूप में सुखाई गई इंटों का ही प्रयोग होता था. समकालीन मैसोपोटामिया (वर्तमान ईराक) में भी पकाई गई ईंटों का प्रयोग था लेकिन हड़प्पा संस्कृति से पकाई गई ईंटों का प्रयोग वहां से कई गुणा ज्यादा होता था. कुछ मकानों में एक से अधिक मन्जिलें थीं. प्रत्येक मकान में प्राय: एक कुंआ और स्नानागार थे. मकानों की नालियों द्वारा गन्दा पानी शहर से बाहर एक बड़ी नाली में जाकर गिरता था. हर मकान में प्रकाश तथा शुद्ध वायु के लिए खिड़कियाँ और रोशनदान होते थे. खुदाई में मिले खंडहारों को देखकर विद्वानों ने अनुमान लगाया है किस सभ्यता के मकान 8 मीटर तक ऊँचे होते थे. साधारणतया मकानों की दीवारें 2-2 मीटर तक मोती होती थीं. इससे स्पष्ट है कि मकान मजबूत तथा दो या तीन मंजिलों वाले होते थे. मकान के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों का प्रबंध था.

विशाल स्नानागार

मोहनजोदड़ो में एक विशाल तालाब मिला है. यह दुर्ग में स्थित था. यह स्नानागार 11 . 88 मीटर लम्बा, 7 . 01 मीटर चौड़ा और 2 . 45 मीटर गहरा है. विद्वानों की राय है कि इस विशाल स्नानागार का प्रयोग आनुष्ठानिक स्थान के लिए होता था. हमारे देश के लिए धार्मिक उत्सवों पर ऐसे सार्वजनिक स्नान का बड़ा महत्त्व रहा है. तालाब के चारों ओर छोटे-छोटे कमरे बने हुए थे. पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी थीं. यह तालाब पक्की ईंटों का बना है तथा इसकी दीवारे एक इंच मोटी राल या विटमन के लेप या प्लास्टर से ढकी हुई हैं. तालाब की दीवारों पर इतना मोटा प्लास्टर इसलिए किया गया है ताकि उनमें नमी न पहुँचे.

सड़कें व गलियाँ

इन नगरों की सड़कें और गलियाँ सीढ़ी और चौड़ी थी जो एक दूसरे को समकोण काटती थीं. मोहनजोदड़ो की मुख्य सड़कें 400 मीटर लम्बी और 10 मीटर चौड़ी थी. वे या तो उत्तर से दक्षिण की ओर या पूर्व से पश्चिम की ओर सीढ़ी जाती थीं. मुख्य सड़कों के साथ-साथ अन्य छोटी सड़कें भी जाती थीं जिनकी चौड़ाई दो से तीन मीटर के बीच होती थीं. इतिहासकार मैके के मतानुसार, “यह सड़कें तथा गलियां इस प्रकार बनी हुई थीं कि चलने वाली वायु एक कोने से दूसरे कोने तक नगर को स्वयं ही साफ कर दे.” सड़कें बीच में से उठी हुई बनायी जाती थीं ताकि वर्षा का पानी उन पर न रुके और स्वत: ही बह कर नालियों में चला जाए.

नालियाँ

सिन्धु घाटी की सभ्यता की सबसे बड़ी और चकित करने वाली यह विशेषता थी कि इसमें घरों के गन्दे पानी और वर्षा के पानी को नगर से बाहर ले जाने के लिए नालियां बनी हुई होती थीं. कुछ नालियां नौ इंच चौड़ी और एक फुट गहरी हैं परन्तु कुछ नालियां इससे दुगुनी चौड़ी हैं. बड़ी नालियां पत्थर की बनी हुई थीं. छोटी नालियां पक्की ईटों, मिट्टी और चूने की बनी हुई होती थीं. इन नालियों को ईंटों या पत्थरों से ढक दिया जाता था और आवश्यकतानुसार उन्हें हटाया जा सकता था. बरसाती पानी और मल-मूत्र के बहने के लिए मल-कूप (cess-pits) बने हुए थे. बड़ी-बड़ी नालियों में थोड़े-थोड़े फासले पर कुछ छेद बने हुए होते थे ताकि उन्हें आसानी से साफ किया जा सके. नालियों के मोड़ों पर तिकोनी इंटों का प्रयोग होता था.

सफाई की ओर विशेष ध्यान

हड़प्पा संस्कृति के लोग स्वास्थ्य तथा सफाई के महत्त्व को आज के सभ्य नागरिकों की तरह भली-भांति जानते थे. इस कथन की सत्यता के पक्ष में हम साक्ष्यों के आधार पर कई तर्क दे सकते हैं जैसे-

  1. ढकी नालियाँ – शहरों में नालियों का विशेष प्रबन्ध होता था. यह नालियां पूरी तरह ढकी हुई होती थीं ताकि इनसे उठने वाली बदबू लोगों के स्वास्थ्य को हानि न पहुंचा सके. नालियों का गन्दा पानी शहर के बाहर गन्दे नाले में डाल दिया जाता था.
  2. कूड़ादान – सिन्धु घाटी के मकानों के बाहर कूड़ेदान मिले हैं. इनसे भी पता लगता है कि वहां के लोग कूड़े को इधर-उधर न डालकर एक ही जगह डालने के आदी थे.
  3. सड़कें – सड़कों का निर्माण इस प्रकार किया जाता था ताकि हवा चलने पर वे स्वतः ही साफ हो जायें तथा वर्षा ऋतु में बारिश का पानी जमा न होने पाये.
  4. मकान – मकानों में खिड़कियों और रोशनदानों का होना यह बताता है कि वे लोग स्वास्थ्य के लिए प्रकाश और शुद्ध वायु के महत्त्व को भली भांति जानते थे.
  5. भट्टियाँ – ईटों को पकाने के लिए बनाई गयी भट्टियों का शहर के बाहर होना भी यह प्रमाणित करता है कि हड़प्पा संस्कृति के लोग वायु प्रदूषण के प्रति सावधान थे.
  6. स्नानगृह – हर मकान में बना स्नानगृह एवं मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानगृह इस बात का प्रमाण देते हैं कि हड़प्पावासी शरीर की सफाई का बहुत ध्यान रखते थे तथा संभवतः प्रतिदिन स्नान करते थे.

विश्व की किसी भी दूसरी समकालीन सभ्यता के लोगों ने स्वास्थ्य और सफाई को इतना महत्त्व नहीं दिया जितना कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने दिया.

हड़प्पा के लोगों का सामाजिक जीवन

भोजन

यहां के निवासियों का मुख्य भोजन गेहूं, चावल, जौ, फल, दूध, घी तथा शाक-सब्जी था. इसके अलावा वे सुअर और भेड़ का मांस, मछली और अण्डे भी खाते थे.  घरों में अन्न रखने के भण्डार मिले हैं, जिनसे अनुमान लगता है कि उन दिनों अन्न की कमी नहीं थी. चूंकि खजूर के भी बीज प्राप्त हुए हैं इससे स्पष्ट है कि वे लोग इस फल का भी प्रयोग करते थे.

वस्त्र

सिन्धुवासियों को कपड़े का ज्ञान था. वे सूती और ऊनी कपड़े पहनते थे. खुदायी में मिली मूर्तियाँ उनके वस्त्र-ज्ञान की पुष्टि करती हैं. खुदायी में मिले तकवे एवं तकली से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि उन्हें कताई तथा बुनाई जैसी कलाओं की जानकारी थी.

आभूषण

इस काल के लोगों को आभूषण का बहुत शौक था. स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आभूषण पहनते थे. अमीर लोगों के आभूषण सोने, चांदी और हाथी दांत के होते थे जबकि गरीबों के आभूषण पकी हुई मिट्टी, हड्डियों तथा तांबे के होते थे.

हड़प्पा संस्कृति में स्त्रियों की दशा

समाज में स्त्रियों का बहुत सम्मान होता था. सामाजिक तथा धार्मिक उत्सवों में स्त्री-पुरुष समान रूप से भाग लेते थे. उस समय की स्त्रियों का प्रमुख कार्य घर पर बच्चों को पालना तथा घरेलू काम करना ही था. वे घर में बेठे-बैठे सूत भी काता करती थीं. पर्दे की प्रथा इस काल में नहीं थी.

मनोरंजन

सिन्धुवासी मनोरंजन के महत्व को भली-भाँति जानते थे. खुदाई में मिली छोटी-छोटी वस्तुएँ एवं खिलौने इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे बच्चों के मनोरंजन के लिए खिलोनों का प्रयोग करते थे. उत्सव और मेलों से भी मनोरंजन किया जाता था. चित्रकारी से भी मनोरंजन किया जाता था. घरेलू एवं बाहर के खेलों को भी मनोरंजन साधन के रूप में प्रयोग किया जाता था.

हड़प्पा के लोगों का आर्थिक जीवन

कृषि

हड़प्पा के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था. जिस तरह मिस्र में नील नदी ने वरदान का कार्य किया उसी प्रकार सिन्धु नदी ने भी उपजाऊ मिट्टी लाकर तथा अपने जल से इस महान सभ्यता का विकास करने में योगदान दिया. नदियों से सिंचाई की जाती थी. विद्वान द्वारा अभी तक नौ फसलें पहचानी गई हैं: चावल (केवल गुजरात तथा सम्भवत: राजस्थान में ), जौ की दो किस्में, गेहूं की तीन किस्में, कपास, खजूर, तरबूज, मटर और एक ऐसी किस्म जिसे ब्रासिका जुंसी की संज्ञा दी गई है (चूंकि कपास सबसे पहले इसी प्रदेश में पैदा किया गया था, इसलिए यूनानियनों ने इसे सिंडोन, जिसकी व्युत्पत्ति सिन्ध शब्द से हुई है, दिया था). व्यवस्थित सिंचाई प्रणाली का कोई साक्ष्य नहीं मिलता. गेहूं, जौ, चावल व कपास की खेती मुख्य रूप से होती थी. हल तथा बैलों से खेतों को जोता जाता था. फसल काटने के लिए पत्थर के हँसियों का प्रयोग होता होगा. वे लोग तिल और सरसों भी पैदा करते थे. किसानों से शायद अनाज के रूप में लगान लिया जाता होगा.

हड़प्पा संस्कृति में पशुपालन

सिन्धुवासियों का दूसरा मुख्य व्यवसाय पशुपालन था. बैल, भैंस, बकरी और सूअर उनके पालतू पशु थे. हाथी और घोड़े के अस्तित्व का भी पता चला है (सुरकोतड़ा में भी घोड़े की अस्थियां मिली हैं). सामान्यतः विद्वानों की राय है कि या तो वहां घोड़े का प्रयोग सम्भवत: बहुत ही कम था, या सिन्धुवासी घोड़े का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं जानते थे. कुछ विद्वानों के अनुसार सिन्धुवासी शायद भेड़ भी नहीं पालते थे. पर हाथी का प्रयोग आमतौर पर होता था. कुत्ता और बिल्ली दोनों के पैरों के निशान मिले हैं, जिनसे साबित होता है कि यहां ये पशु भी पाले जाते थे.

व्यापार और वाणिज्य

हड़प्पा निवासियों द्वारा आन्तरिक एवं विदेशी दोनों प्रकार का व्यापार किया जाता था. आन्तरिक व्यापार की दृष्टि से तात्कालिक नगर (हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चान्हूदाड़ो, रोपड़, सुरकोतड़ा, आलमगीरपुर आदि) व्यापार और वाणिज्य के केन्द्र थे. एक स्थान से दूसरे स्थान को माल बैलगाड़ियों, इक्कों तथा पशुओं पर लाया ले जाया जाता था. सिन्धु सभ्यता की विभिन्‍न बस्तियों के अवशेषों में मिले, माप-तोल की बहुत-सी चीजें इस बात के सूचक हैं कि इस युग में व्यापार अच्छी उन्नत दशा में था. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के अवशेषों में जो अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं, वे सब सिन्धु प्रदेश की उपज व कृति नहीं हैं. उनमें से अनेक वस्तुएँ सुदूरवर्ती प्रदेशों से प्राप्त की गयी होंगी. तांबे का आयात मुख्यतया राजपूताना से होता था. सीप, शंख, कौड़ी इत्यादि काठियावाड़ के समुद्र तट से आती होंगीं. इस युग में सिन्धुवासी आन्तरिक व्यापार के साथ-साथ विदेशी व्यापार खूब करते थे. खुदाई में मिला लोथल बन्दरगाह, सुमेरिया के अवशेषों से मिलती-जुलती मुद्राएं, ईरान के अनेक प्राचीन खण्डहरों में मिली वस्तुएँ (जो सिन्धु प्रदेशों से गयी मानी जाती हैं) आदि इस बात के प्रतीक हैं कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों का व्यापार सुमेरिया, ईरान आदि देशों से था. सम्भवतः हड़प्पा निवासी चांदी, टिन, शीशा और सोना अफगानिस्तान और ईरान से प्राप्त करते थे. वे विदेशी व्यापार स्थल तथा जल दोनों मार्गों से करते थे. सम्भवतः जल मार्ग के लिए नौकाओं और छोटे जहाजों का प्रयोग किया करते थे.

नाप-तौल और माप साधन (weight and measures)

सिन्धु घाटी तौल के लिए अनेक प्रकार के बाटों एवं मापों से परिचित थे. तोलने की तराजू भी खुदाई में प्राप्त हुई है. सर्राफों तथा जौहरियों के काम में आने वाले छोटे बाट भी मिले हैं जो स्‍लेट और पत्थर के होते थे. सबसे छोटे बाट का वजन 13.64 ग्राम के बराबर था और सबसे बड़े बाट का वजन इससे 640 गुना अधिक था. पत्थर के ऐसे भारी बाट भी प्राप्त हुए हैं जिन्हें लकड़ी या रस्सी की मदद से उठाया जाता होगा.

अनेक बातों से यह प्रतीत होता है कि सिन्धु घाटी के लोग आन्तरिक व्यापार के साथ-साथ विदेशों से भी व्यापार करते थे. इन बाटों की तोल में अनुपात 1,2,4,8,16,32, आदि का भेद था. संख्या के आधार पर कहा जा सकता है कि 16 इकाई वाले बाट सबसे ज्यादा प्रयोग होते थे. मोहनजोदड़ो में सीपी का एक फुट (माप पट्टी ) मिला है. इसमें 9 बराबर-बराबर के निशान बने हुए थे. इसके दो निशानों के मध्य का अन्तर 0.264 इंच के बराबर है. इसी तरह हड़प्पा नगर की खुदायी में कांसी की एक माप-पट्टी मिली है जिस पर नापने के अनेक चिन्ह लगे हुए हैं. प्रत्येक विभाग की लम्बाई 0.376 इंच है. विद्वानों ने दोनों फुटों के आधार पर अनुमान लगाया है कि हड़प्पा में 13.2 इंच का लम्बा फुटा काम में लाया जाता था. यहाँ एक अन्य माप का भी प्रयोग होता था जिसकी लम्बाई लगभग 20.44 इंच थी. इन फुटों का विभिन्न चीजों जैसे भूमि की माप, मकानों की लम्बाई-ऊँचाई आदि जानने के लिए प्रयोग किया जाता था.

हड़प्पा की सभ्यता में यातायात के साधन

हड़प्पा की सभ्यता में लोग अनेक प्रकार के यातायात के साधनों का प्रयोग करते थे. उन्नत व्यापार के साथ-साथ सिन्धु सभ्यता से सम्बन्धित विभिन्‍न स्थलों का दूर-दूर स्थित होना भी इस बात का प्रमाण है कि वहाँ पर आवागमन के साधन अच्छे थे तथा लोग आसानी से परस्पर सम्पर्क बनाये रखते थे. वे आने-जाने के लिए स्थल और जलमार्गों पर चलने वाले यातायात के साधनों का प्रयोग करते थे. वे सिन्धु नदी के रास्ते तथा उससे जुड़ी हुई अन्य नदियों के माध्यम से नौकाओं का प्रयोग आने-जाने एवं आन्तरिक व्यापार के लिए करते थे. नौकाएँ लकड़ी की बनी हुई होती थीं तथा जिन्हें चप्पुओं से खींचा जाता था यहाँ के लोग नावों के साथ-साथ छोटे जहाजों का भी प्रयोग करते थे. इस सभ्यता के अवशेषों में उपलब्ध हुई एक मोहर पर एक जहाज की आकृति अति सुन्दर रूप से अंकित की गई दहै. इसी प्रकार मिट्टी के बर्तन पर एक जहाज की आकृति सुन्दर रूप में अंकित की गई है. लोथल बन्दरगाह भी इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वहाँ दूर-दूर के जहाज आते-जाते थे. इन जहाजों के द्वारा आन्तरिक व्यापार के साथ-साथ विदेशी व्यापार भी होता था. सिन्धुवासी स्थल मार्ग द्वारा आवागमन के लिए एवं सामान ढोने के लिए हाथी और गधा जँसे जानवरों का प्रयोग करते थे. सम्भवत: वे घोड़े का प्रयोग या तो जानते ही नहीं थे या बहुत कम उपयोग करते थे. मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा के अवशेषों में खिलौनों के रूप में अनेक मिट्टी की छोटी-छोटी गाड़ियाँ बड़ी संख्या में उपलब्ध हुई हैं. खिलौनों के रूप में गाड़ियों को बनाना ही इस बात का प्रमाण है कि उस युग में लोग इनका खूब उपयोग किया करते थे.

हड़प्पा के खंडहरों में काँसे का बना एक छोटा-सा इक्का मिला है, जिसे सम्भवत: उस युग में प्रयुक्त होने वाले इक्कों के नमूने पर बनाया गया. इन इक्कों में वे शायद दो गधों को जोड़ा करते थे. अनेक विद्वानों की राय है कि सैन्धव “रथों का प्रयोग” जानते थे. विभिन्‍न मोहरों पर खुदे चित्रों के आधार पर तथा मिट्टी के बर्तनों पर खींचे गए चित्रों के आधार पर ऐसा अनुमान लगाया गया है. खुदाई में पक्षियों के आकार के कई रथ तथा दो पहिए वाला ताँबे का विलक्षण रथ भी प्राप्त हुआ है.

अन्य उद्योग धंधे

पत्थर, ताँबे, एवं कांसे से अनेक वस्तुएँ बनाई जाती थीं. अनेक स्थानों पर तांबा राजस्थान और बलुचिस्तान से आयात किया जाता था. शिल्पकार मूर्तियाँ, बर्तन, औजार, हथियार जैसे कुल्हाड़ियाँ, आरियाँ, छुरे और भाले बनाते थे. सूती कपड़ों का भी निर्माण किया जाता था. कपड़े की छपाई और सूत की कताई भी होती थी. मकान और नौकाएँ बनाकर भी लोग जीविका कमाते थे. सुनार चाँदी, सोना और कीमती पत्थरों से गहने बनाते थे. कुम्हार चाक पर मिट्टी के बतेन बनाते थे.

हड़प्पा संस्कृति के लोगों के धापिक विश्वास और रीति-रिवाज

देवी पूजा

हड़प्पा संस्कृति की प्राप्त मिट्टी मूर्तियों से मालूम होता है कि वे देवी की पूजा करते थे. एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से एक पौधा निकल रहा हैं. शायद यह धरती देवी की मूर्ति है. हड़प्पावासी भूमि को उर्वरता की देवी समझ उसकी पूजा करते थे. बाद में हिन्दू लोग मातृ शक्ति की पूजा दुर्गा, काली, चण्डी आादि देवियों के रूप में करने लगे.

देवता की पूजा

एक मुहर पर एक ऐसा चित्र मिला है जिसके तीन मुंह हैं जिसके आसपास पशुओं के चित्र बने हैं. सम्भवतः बाद में इस देवता की पूजा की भावना शिव की पूजा के रूप में विकसित हुई. लिंग-पूजा के प्रचलन के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है. बाद में हिन्दू समाज में एक पूजा-विधि लिंग-पूजा भी बन गयी. कालीबंगा में भी हवन-कुंड भी मिले हैं.

mohanjodaro mohar

मोहनजोदड़ो में मिली पशुपति मोहर

पेड़ों व पशुओं की उपासना

हड़प्पा संस्कृति के लोग पेड़ों को भी पूजते थे. अनेक पशुओं की भी पूजा होती थी. पूजा का प्रमुख पशु कूबड़वाला सांड था. परन्तु सिन्धुवासी अपने देवताओं के लिए मन्दिर नहीं बनाते थे.

मृतक क्रियाएं

हड़प्पा संस्कृति के लोगों में कुछ लोग शवों को जलाते थे, कुछ पशु-पक्षियों के सामने खुला छोड़ देते थे. वे उनसे डरते भी थे. कुछ शवों को जलाकर राख को मिट्टी में गाड़ देते थे.

अन्य विश्वास

बड़ी मात्रा में मिले ताबीज इस बात का प्रमाण है कि यहां के लोग भूत-प्रेत में विश्वास रखते थे. वे उनसे डरते भी थे. सिन्धुवासी अन्य प्राचीन सभ्यताओं के लोगों की तरह अन्धविश्वासी थे.

हड़प्पा संस्कृति में राजनीतिक संगठन

हड़प्पा संस्कृति के लोगों का राजनीतिक संगठन तथा उनकी शासन व्यवस्था किस प्रकार की थी इसका कोई विश्वस्त प्रमाण नहीं प्राप्त हो सका है. हड़प्पा संस्कृति में सुनियोजित नगर योजना, सफाई का उचित प्रबन्ध, बस्तियों के निर्माण में व्यापक एकरूपता देखने को मिलती है, उससे वहां कुशल राजनीतिक संगठन होने का संकेत मिलता है. अनेक विद्वानों की राय है कि यहां के राजतन्त्र या राजनीतिक संगठन पर धर्मतन्त्र की गहरी छाप अवश्य थी क्योंकि इस सभ्यता के विभिन्‍न पक्षों में प्रबल रूढ़िवादिता देखने को मिलती है. कुछ विद्वान एक जैसी माप-तौल के प्रचलन, एक ही प्रकार के भवन, एक जैसी मूर्तियां तथा सामान्य लिपि के आधार पर अनुमानतः कहते हैं कि यह्‌ सभ्यता किसी साम्राज्य का प्रतिनिधित्व करती थी तथा इसकी दो राजधानियां – हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो थीं. लेकिन अन्य विद्वान इस मत को नहीं मानते क्योंकि इसे प्रमाणित करने के लिए कोई भी आधार नहीं है. कुछ विद्वानों की राय है कि मोहनजोदड़ो में (विशाल स्नानागार के आधार पर) दक्षिणी मैसोपोटामिया की तरह पुरोहित वर्ग का तथा लोथल एवं हड़प्पा में व्यापारी वर्ग का शासन था.

हड़प्पा संस्कृति के मिट्टी के बर्तन, मूतियाँ लिपि तथा कला

मिट्टी के बर्तन

सिन्धु लोग कुम्हार के चाक का प्रयोग करते थे. मिट्टी के बर्तनों पर अनेक रंगों की चित्रकारी की जाती थी. वे पेड़ों एवं मानव के चित्र बनाते थे. मिट्टी के खिलौनों एवं मोहरों के अलावा नई प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिले हैं.

मूर्तियाँ

सिन्धुवासी सुन्दर धातुओं की प्रतिमाएं बनाते ये. कांसे की नर्तकी की मूर्ति बहुत सुन्दर है. कुछ पत्थर की मूर्तियां भी मिली हैं. दो पुरुषों की मूर्तियों में से एक को पूरी तरह सजाया गया है तो दूसरी मूर्ति पूरी निर्वस्त्र है.

खिलौने या छोटी-छोटी मूर्तियां

पक्षी, पशुओं की छोटी-छोटी मूर्तियां भी मिली हैं. शायद ये खिलौने थे जिन्हें मनोरंजन के लिए प्रयोग किया जाता था. परन्तु ये मूर्तियां उच्च कोटि की नहीं हैं तथा मिस्र की मूर्तियों की तरह कलात्मक भी नहीं हैं.

नक्‍काशी

हड़प्पा संस्कृति के निवासी नक्काशी जैसा कलात्मक काम जानते थे. इस बात का प्रमाण खुदाई से मिली सुन्दर मोहरें दे रही हैं. नक्काशी का काम पत्थर, धातु, मिट्टी से बनी वस्तुओं तथा हाथी दांत पर किया जाता था.

हड़प्पा संस्कृति की लिपि

सिन्धु घाटी के लोगों को लेखन शैली या लिपि का ज्ञान प्राप्त था. उनकी खुदायी में मिली मोहरों पर लिखावट इस बात का स्पष्ट प्रमाण है. यद्यपि 1923 ई० में इस लिपि के बारे में पूरी जानकारी मिल चुकी थी, फिर भी इस लिपि को पढ़ने के सारे प्रयत्न अब तक असफल सिद्ध हुए हैं. कई विद्वानों का विश्वास है कि यह लेखन शैली भी चित्र लिपि है और इसका प्रत्येक चिन्ह किसी एक वस्तु या भाव को प्रकट करता है. यह लिपि प्रथम पंक्ति में दायीं से बायीं भोर लिखी जाती थी तो दूसरी पंक्ति में बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती थी. यह लिपि तत्कालीन मिस्त्री, सुमेरियन और चीनी लिपियों के वर्ग की ही लिपि थी. बाद में भारत में वैदिक युग में प्रचलित होने वाली ब्राह्मी लिपि बायीं ओर से दाईं ओर तथा खरोष्ठी लिपि दायीं ओर से बायीं जोर लिखी जाती थी. इस लिपि को पढ़ने में प्रयत्नशील कुछ विद्वानों का मत है कि इसमें प्राक्‌ द्रविड़ भाषा छिपी है. दूसरों का मत है इसमें संस्कृत भाषा है, और कुछ का यह भी मत है कि इन लेखों की भाषा सुमेरी है. परन्तु ये सभी प्रयास अधूरे हैं. अगर इस लिपि को पढ़ने में विद्वानों को सफलता मिल गयी तो नि:संदेह हमें हड़प्पा संस्कृति के बारे में बहुत-सा नया ज्ञान प्राप्त होगा.

चित्रकला

मूर्तिकला, बर्तन निर्माण एवं लेखन कला के साथ-साथ सिन्धवासियों को चित्रकला से भी लगाव था. खुदायी में मिली अनेक वस्तुयें, जैसे बर्तन व खिलौनों पर बनें चित्र इस बात के बहुत बड़े प्रमाण हैं. वे मुख्यतः बेल, पत्तियों, पशुओं एवं पक्षियों के चित्र बनाते थे.

हड़प्पा संस्कृति के पतन के कारण

अनुमानत: 1700 यथा 1750 ई० पू० के लगभग हड़प्पा संस्कृति के दो प्रमुख नगरों – हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो – का अन्त हो गया. परन्तु दूसरे क्षेत्रों में इस सभ्यता का पतन धीरे-धीरे हुआ. गुजरात, राजस्थान आदि क्षेत्रों में लम्बे समय तक यह सभ्यता चलती रही. इस सभ्यता के पतन के वारे में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता. विद्वानों ने इसके अनेक कारण बताये हैं. एक मत के अनुसार भूमि में रेगिस्तान फैलता चला गया तथा उसमें लवणता की मात्रा बढ़ती गई जिससे भूमि की उत्पादकता समाप्त हो गई. दूसरे मत के अनुसार इस क्षेत्र के नीचे धंसने के कारण भयंकर बाढ़ आयी तथा इससे ही अचानक इसका विनाश हो गया. तीसरे मत के अनुसार इस सभ्यता का आर्यों ने विनाश किया. इस मत को कुछ ही विद्वान मानते हैं. उसके अनुसार आर्य विदेशी थे. सिन्धु सभ्यता के निर्माता द्रविड़ थे. जब आर्यों का द्रविड़ों से संघर्ष हुआ तो आर्य अपने लोहे के अस्त्र-शस्त्रों के कारण

द्रविड़ों को मार भगाया तथा उनकी संस्कृति को पूरी तरह बर्बाद कर दिया. यह मत मुख्यतः दो बातों पर आधारित है –

(1) मोहनजोदड़ो की खुदाई के ऊपरी स्तर पर कई सारे कंकालों का मिलना—इसे इस बात का साक्ष्य माना गया है कि आर्यों ने यहां के लोगों का व्यापक संहार कर डाला था.

(2) आर्यों के प्रथम तथा प्राचीनतम वेद ऋग्वेद इन्द्र देवता का उल्लेख दुर्ग-संहारक के रूप में किया गया है. किन्तु अधिकांश आधुनिक विद्वान इस मत को नहीं मानते क्‍योंकि अब यह सिद्ध हो चुका है कि मोहनजोदड़ो के ऊपरी सतह पर मिलने वाले सभी कंकाल एक ही काल से सम्बन्धित नहीं हैं तथा ऋग्वेद की चूंकि सही-सही तिथि निर्धारित नहीं की जा सकी है इसलिए उसमें इन्द्र का दुर्ग संहारक के रूप में किया गया विवरण बहुत अधिक ऐतिहासिक महत्त्व नहीं रखता.

अन्य मत के अनुसार भूकम्प या किसी महामारी के कारण इस सभ्यता का अन्त हो गया. पांचवें मत के अनुसार सिन्धु नदी ने अपना मार्ग बदल लिया होगा तथा पानी की कमी इस सभ्यता के विनाश का कारण बन गई होगी. ये सभी मत केवल अनुमान ही हैं, तथ्य नहीं.

हड़प्पा संस्कृति की देन

भारतवर्ष के लिए हड़प्पा संस्कृति का अत्यधिक ऐतिहासिक महत्त्व है. कुछ इतिहासकार इस संस्कृति को ताम्र-पाषाणिक संस्कृति से भी पुरानी मानते हैं. चाहे ताम्र व कांस्य युग की सभी सभ्यताओं से हड़प्पा संस्कृति सर्वाधिक प्राचीन न हो तो भी इसे निःसंकोच विश्व की प्राचीनतम उत्कृष्ट सभ्यता कहा जा सकता है क्‍योंकि यह विश्व की प्रथम ज्ञात और प्रमाणित सभ्यता है.

इस सभ्यता की खोज ने भारत के इतिहास के आरम्भ को कम से कम तीन हजार वर्ष अधिक प्राचीन कर दिया है. हड़प्पा संस्कृति की जानकारी से पूर्व भारतीय इतिहास को आर्यों के आगमन, विस्तार एवं उनकी सभ्यता से शुरू किया जाता था. इसे अन्धकार से प्रकाश में लाने का श्रेय श्री माधो स्वरूप वत्स, राय बहादुर श्री दयाराम साहनी, तथा श्री राखल दास बनर्जी को प्राप्त है. उन्होंने हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की खोज करके यह प्रमाणित कर दिया कि भारत में आर्यों के आगमन से हजारों वर्ष पूर्व एक उच्चकोटि की संस्कृति विकसित हो चुकी थी. न केवल काल की प्राचीनता ही हड़प्पा संस्कृति के ऐतिहासिक महत्त्व को स्थापित करती है अपितु इस सभ्यता की भव्यता, महान्‌ विशेषताएं आदि भी इस संस्कृति के महत्त्व को बढ़ाती हैं. इस संस्कृत की खोज ने भारत के प्राचीनतम लोगों के जीवन को ग्रामीण होने से ऊपर उठाकर एक शहरी होने का श्रेय प्रदान किया. हड़प्पा संस्कति का अध्ययन करने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि यहूं विश्व की प्राचीनतम सुनियोजित नगरों की सभ्यता थी. सिन्धु सभ्यता के नगरों की योजना जाल पद्धति की है और इनमें सड़कें, नालियों, और मलकुंडों की अच्छी व्यवस्था की गई है. पश्चिमी एशिया की समकालीन (मैसोपोटामिया की सभ्यता) सभ्यताओं से सम्बन्धित नगरों, में ऐसी नगर योजना देखने को नहीं मिलती. सम्भवतः क्रीट द्वीप के कनोसस नगर को छोड़कर प्राचीन मुग के किसी भी नगर में जल-निकासी का ऐसा उत्तम प्रबन्ध देखने को नहीं मिलता. हड़प्पा संस्कृति के लोगों, ने पकी इंटों के प्रयोग में जिस कौशल का परिचय दिया वैसा पश्चिमी एशिया के लोग नहीं दे पाए. हड़प्पा के लोगों के मिट्टी के बर्तन और उनकी मुहरें विशिष्ट प्रकार की थीं. इन मुहरों पर स्थानीय पशुओं की आकृतियाँ अंकित हैं. इन सबके अलावा सिन्धुवासियों ने अपनी एक लिपि बनाई जिसका मिस्र या मेसोपोटामिया की लिपि से कोई साम्य नहीं है. इसके अतिरिक्त हड़प्पा संस्कृति का विस्तार जितने अधिक क्षेत्र में रहा उतना अन्य किसी भी समकालीन सभ्यता का नहीं रहा. हड़प्पा संस्कृति के नगरों के पतन के साथ भारत के इतिहास में अभाव का एक दौर चला. यद्यपि हड़प्पा संस्कृति की कुछ विशेषताएं कायम रहीं, परन्तु बाद में आए लोग नगर जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते थे. एक हजार साल का लम्बा समय गुजर जाने के बाद ही भारत में पुनः नगरों का उत्थान हुआ.

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