सर सैयद अहमद खाँ – Sir Syed Ahmed Khan

Dr. SajivaBiography, History, Modern History

सर सैयद अहमद खाँ मुसलमानों में नवजागरण लाने के लिए और हर मुसलमान अपने अधिकारों के प्रति सचेष्ट हो, इसके लिए हमेशा प्रयासरत रहे. शुरुआती दौर में उनका प्रयास था कि मुसलमानों, विशेषतः उच्चवर्गीय मुसलमानों में अधिक से अधिक शिक्षा का प्रसार हो. उन्होंने मुसलमानों को आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा से अवगत कराया. वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर भी थे. उन्होंने खुद कहा था – “याद रखो कि हिन्दू और मुसलमान शब्द सिर्फ और सिर्फ धार्मिक पहचान के लिए हैं – अन्यथा सभी मनुष्य चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान हों, या इसाई भी हों…वे सभी एक देश में हैं और एक देश के लिए हैं – सभी को देश की अच्छाई के लिए एकजुट होना चाहिए.” आइए जानते हैं उनके जीवन का परिचय, उनके द्वारा लिखे गए कुछ books के नाम, उनके द्वारा बनाई गई कुछ शैक्षणिक संस्थाओं के नाम, भारतीय इतिहास में उनका योगदान (contribution), उनकी पूरी biography in Hindi.

सर सैयद अहमद खाँ परिचय (Biography)

27 October, 1817 ई. में दिल्ली में जन्मे सर सैयद अहमद खां एक मुस्लिम शिक्षक, कानून और विविध भाषाओं के ज्ञानी और एक उत्कृष्ट लेखक और अनुवादक थे. मुस्लिम समुदाय आधुनिक शिक्षा के साथ जुड़े, उनके जीवन का लक्ष्य अंत तक यही रहा. आधुनिक शिक्षा से यहाँ मतलब अंग्रेजी शिक्षा से है.

उनकी कुछ  रचनाएँ (Books)

  1. Bible और Quran पर टीका-टिप्पणी
  2. आसारुस्सनादीद – दिल्ली की इमारतों पर एक शोध-पुस्तक.
  3. Abtale Ghulami (1893), Urdu (Slavery is against nature)
  4. Ahkam Ta” am al-kitab (1868)
  5. आइने अकबरी जो अबुल फजल द्वारा लिखा गया था, उसका उन्होंने पर्सियन, अरबी, संस्कृत, हिंदी, इंग्लिश भाषा में अनुवाद किया.
  6. Khutubat-i-Ahmadiya

संस्थाएँ

उन्होंने साइंटिफ़िक सोसाइटी (Scientific Society) की स्थापना की जिसके जरिये ऊर्दू और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पत्रिकाएँ निकाली जाती थीं. 1875 ई. में उन्होंने उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की जिसमें यूरोपीय शिक्षा-पद्धति को महत्ता दी गई. इसका पुराना नाम Mohammedan Anglo-Oriental College था.

सर सैयद अहमद खाँ के मन में परिवर्तन

दुःख की बात है कि कालांतर में सैयद अहमद के विचारों में परिवर्तन आ गया. वे रुढ़िवादी और साम्प्रदायिक बनते चले गए. उन्हें प्रजातंत्र की स्थापना पर आपत्ति थी क्योंकि उस समय उनके अनुसार देश के सभी वर्ग समान रूप से शिक्षित और प्रगतिशील नहीं थे. उनके अन्दर ये डर समाने लगा था कि प्रजातंत्र की स्थापना के बाद भारत देश दो दलों- हिन्दू और मुसलमान में बँट जायेगा जिससे अल्पसंख्यक मुसलमान कभी सत्ता में नहीं आ सकेंगे. इसलिए उनका झुकाव अंग्रेजी राज और उनके द्वारा मनोनीत प्रशासकों के प्रति हो गया. जब कांग्रेस की स्थापना हुई तो वे इसके कट्टर विरोधी के रूप में प्रकट हुए. उनका कहना था कि कांग्रेस केवल हिन्दुओं के लिए है और मुसलमानों को इससे दूरी बना कर रहना चाहिए. उन्होंने 1888 ई. में इलाहाबाद अधिवेशन के समय इस संस्था (कांग्रेस) को तोड़ने का जी-तोड़ प्रयास किया. इस प्रयास में उन्हें असफलता मिली और उसके बाद उन्होंने “यूनाइटेड पैट्रियाटिक एसोसिएशन” (The United Patriotic Association – 1888) और “मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल डिफेन्स एसोसिएशन (The Mohammedan Anglo-Oriental Defence Association -1893) की स्थापना की.

The United Patriotic Association द्वारा कांग्रेस और हिन्दू विरोधी प्रचार किया गया. दूसरी संस्था The Mohammedan…. ने मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों को उनके ऐतिहासिक योगदान और राजनीतिक महत्त्व के आधार पर प्रस्तुत किया. इसका मतलब ये हुआ कि वे गुलाम वंश से लेकर औरंगजेब तक के क्रूर शासन को एक उपलब्धि व योगदान के रूप में अंग्रेजों के सामने प्रस्तुत करना चाह रहे थे जिससे अभी के मुसलमानों को उनका हक़ मिले. इस संस्था ने उत्तरप्रदेश में हिन्दुओ के सामान प्रतिनिधित्व, पृथक निर्वाचन पद्धति और आरक्षण की माँग की. उन्होंने अदालतों में उर्दू की जगह हिंदी के प्रयोग पर भी आपत्ति उठाई और कहा कि इससे मुसलमानों के लिए नौकरी के अवसर घट जायेंगे. उनके द्वारा 1888 ई. में यह बयान दिया गया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौम (देश) हैं जिनके स्वार्थ अलग-अलग हैं. सैयद अहमद जैसे इंसान का यह बयान आग की तरह फ़ैल गया और हिन्दू-मुस्लिम के बीच प्रत्यक्ष  रूप से दिवार दिखने लगा. वैसे कुछ मुसलमान ऐसे भी थे जिन्होंने अहमद खाँ के विरोध के बावजूद कांग्रेस से जुड़े, जैसे – एम. सयानी, बदरुद्दीन तैयब जी इत्यादि.

हिन्दू-मुस्लिम के बीच पड़ी दरार का फायदा उठाने के लिए लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की योजना बनाई. इसका मुख्य उद्देश्य बंगाल में बढ़ी राष्ट्रीयता की भावना को कुचलना था. अपनी इस योजना के जरिये वह बंगाल की राष्ट्रीय एकता को नष्ट करके हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालना चाहता था. बंगाल विभाजन के बारे में और detail में पढ़ें >> बंगाल विभाजन. हिन्दू ने बंगाल विभाजन का जोरों से विरोध किया पर मुसलमान इस विभाजन के पक्ष में थे. मुसलमान संगठित होने का प्रयास करने लगे. इसी प्रयास का परिणाम था कि 1906 ई. में “मुस्लिम लीग” (The Muslim League) की स्थापना हुई.

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