नेहरु रिपोर्ट से जुड़े तथ्य और जानकारियाँ – Nehru Report 1928 in Hindi

Dr. Sajiva#AdhunikIndia, Modern History

साइमन कमीशन की नियुक्ति के साथ ही भारत सचिव Lord Birkenhead ने भारतीय नेताओं को यह चुनौती दी कि यदि वे विभिन्न दलों और सम्प्रदायों की सहमति से एक संविधान तैयार कर सकें तो इंग्लैंड सरकार उस पर गंभीरता से विचार करेगी. इस चुनौती को भारतीय नेताओं ने स्वीकार करके इस बात का प्रयास किया कि साथ में मिल-जुलकर संविधान का एक प्रारूप तैयार किया जाए. इसके लिए मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक समिति को गठित किया गया, जिसका कार्य था संविधान का प्रारूप तैयार करना. इस समिति के सचिव् जवाहर लाल नेहरु थे. इसमें अन्य 9 सदस्य भी जिनमें से एक सुभाष चन्द्र बोस थे. समिति ने अपनी रिपोर्ट 28-30 अगस्त, 1928 को प्रस्तुत की जिसे नेहरु रिपोर्ट (Nehru Report) के नाम से जाना जाता है.

Proposals of Nehru Report

1. भारत को एक dominion state राज्य का दर्जा दिया जाए.9

  • केंद्र में द्विसदनात्म्क प्रणाली की स्थापना हो.
  • कार्यकारिणी पूरी तरह से व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायित हो.
  • समस्त दायित्व भारतीय प्रतिनिधियों को सौंपा जाए.

2. भारत में संघीय प्रणाली की स्थापना की जाए.

  • अवशिष्ट शक्ति केंद्र के पास हो.

3. सभी चुनाव क्षेत्रीय आधार पर हों.

  • साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को समाप्त कर दिया जाए.
  • निर्वाचन व्यस्क मताधिकार के आधार पर हो.

4. इस रिपोर्ट में कहा गया कि कोई राज धर्म नहीं होगा.

5. पुरुषों और स्त्रियों को सामान नागरिक अधिकार देने का प्रस्ताव था.

6. नेहरु रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय के निर्माण का प्रस्ताव शामिल था.

7. Nehru Report में किसी भी समुदाय के लिए अलग मतदाताओं (electorate) या अल्पसंख्यकों के लिए वेटेज प्रदान करने का प्रावधान नहीं  था.

8. नेहरु रिपोर्ट में संघीय शासन का प्रस्ताव दिया गया था जिसमें अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को ही मिलनी थीं.

नेहरु रिपोर्ट का विरोध

नेहरु रिपोर्ट का जिन्ना और मुस्लिम लीग के अन्य नेताओं ने पुरजोर विरोध किया. इसके पीछे मूल कारण यह था कि इसमें साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व का प्रावधान नहीं किया गया था. कांग्रेस में कुछ लोग डोमिनियन स्टेटस (dominion status) की बात से संतुष्ट नहीं थे. वे पूर्ण स्वराज को Nehru Report में शामिल किये जाने की माँग कर रहे थे. कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य राजनेताओं में नेहरु रिपोर्ट के सन्दर्भ में पूर्ण सहमति नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया.

Detailed Explanation
——नेहेरू रिपोर्ट के बारे में विस्तार से पढ़ें——

नेहरू रिपोर्ट

जिस समय पूरा देश साइमन कमीशन का बहिष्कार कर रहा था, उसी समय भारतीय मामलों के मंत्री लॉर्ड बर्केनहेड ने स्वराजवादियों को चुनौती देते हुए कहा था कि, ‘वह एक ऐसा संविधान तैयार करें, जिसमें ऐसी व्यवस्थाएं हों कि भारत की (महान) जनता आमतौर पर उससे सहमति व्यक्त करे.’ निश्चय ही इस व्यंग्यात्मक चुनौती के पीछे यह कारण काम कर रहा था कि भारतीयों के वर्गीय, दलीय, और जातिगत स्वार्थ कभी एक सर्वमान्य संविधान के लिए तैयार नहीं होंगे. भारत सचिव ने भारत के नब्ज को ठीक से पकड़ा था, बाद की घटनाओं ने यह साबित कर दिया. भारत सचिव की चुनौती का जवाब दने के लिए कांग्रेस ने फरवरी 1928 में दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन (All Party Conference) का आयोजन किया. इसकी अनेक बैठकें हुईं. इन बैठकों में निश्चित किया गया कि श्री मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में 8 व्यक्तियों की एक समिति बनायी जाए जो 1 जुलाई, 1928 के पहले भारत के लिए संविधान का एक प्रारूप तैयार कर सके.

29 राजनीतिक संगठनों ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया. कमेटी ने, जिसके सदस्यों में अली ईमाम, तेज बहादुर सप्रु, सुभाष चन्द्र बोस, श्री एम. एस. अणे, सरदार मंगरू सिंह, श्री शोएब कुरैशी तथा श्री जी. आर. प्रधान शामिल थे, शीघ्र ही अपना काम पूरा कर अपना प्रतिवेदन अगस्त 1928 में पेश कर दिया. यह प्रारूप ‘नेहरू रिपोर्ट’ के नाम से जाना जाता है.

नेहरू रिपोर्ट के प्रमुख सुझाव

  • भारत को औपनिवेशिक स्वराज प्रदान किया जाना चाहिए और उसका स्थान ब्रिटिश शासन के अंतर्गत अन्य उपनिवेशों के समान होना चाहिए.
  • केन्द्र में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना होनी चाहिए. भारत के गवर्नर जनरल को लोकप्रिय मंत्रियों के परामर्श पर और संवैधानिक प्रधान के रूप मे कार्य करना चाहिए.
  • केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा द्वि-सदनीय (bi-camerial) हो और मंत्रिमंडल उसके प्रति उत्तरदायी हो. निम्न सदन का निर्वाचन, वयस्क मताधिकार के आधर पर प्रत्यक्ष रीति से तथा उच्च सदन का परोक्ष रीति से हो.
  • प्रांतों में भी केन्द्र की भांति उत्तरदायी शासन की स्थापना हो.
  • केन्द्र और प्रांतों के बीच शक्ति वितरण की एक योजना प्रस्तुत की गयी, जिसमें अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र को प्रदान की गयीं.
  • उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत को ब्रिटिश भारत के अन्य प्रान्तों के समान वैधानिक स्तर प्राप्त होना चाहिए.
  • सिन्ध को बम्बई से अलग कर उसको एक पृथक प्रातं बनाया जाये.
  • रिपोर्ट में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया और उन्हें संविधान में स्थान देने की सिफारिश की गयी.
  • रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि देशी राज्यों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों की रक्षा की व्यवस्था की जाये. साथ-साथ उन्हें यह चतेावनी भी दी गयी कि भारतीय संघ में उन्हें तभी सम्मिलित किया जाए, जब उनके राज्य में उत्तरदायी शासन की व्यवस्था हो जाए.

मूल्यांकन

नेहरू रिपोर्ट पर विचार करने के लिए 1928 में ही लखनऊ और दिल्ली में सर्वदलीय सम्मेलन हुए. इन सम्मेलनों में भारतीय नेताओं का विरोध उभरकर सामने आया. सम्मेलन में मोहम्मद अली ने रिपोर्ट की आलाचेना की, जिन्ना ने अधिक प्रतिनिधित्व की माँग की, तो आगा खां ने देश के हर प्रांत को स्वाधीनता दिए जाने की माँग की. मुसलमानों के अड़ंगा  लगाने पर हिन्दू संप्रदायवादी भी अकड़ गये. सिक्खों ने पंजाब में विशेष प्रतिनिधित्व की माँग की. जिन्ना ने बाद में अपनी ‘14 सूत्री माँगें’ रखीं. इसके विपरित राष्ट्रवादी मुसलामानों का दल (डा. अंसारी, अली इमाम इत्यादि) ‘नेहरू रिपोर्ट’ को स्वीकार करने के पक्ष में थे. स्वयं कांग्रेस में भी इस रिपोर्ट पर मतभेद था. कांग्रेस का वामपंथी युवा वर्ग जिसका नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू और सुभाष बोस कर रहे थे, और जो औपनिवेशिक स्वतंत्रता से संतुष्ट नहीं थे, ने पूर्ण स्वतंत्रता की माँग को कांग्रेस का उद्देश्य बनाना चाहा था. उन लोगों ने नवम्बर 1928 में ‘इंडिपेंडेन्स लीग’ की स्थापना भी की तथा युवा वर्ग में स्वतंत्रता के प्रति रुझान पैदा करने में सफल रहे. कलकत्ता अधिवेशन में भी इस वर्ग ने कांग्रेस नेतृत्व से अपने लक्ष्य में परिवर्तन करने की माँग ठुकरायी. गांधीजी के प्रयासों से विद्रोह दब गया, परंतु यह तय हुआ कि अगर एक वर्ष के अन्दर सरकार ने ‘डोमिनियन स्टेटस’ प्रदान नहीं किया तो कांग्रेस का लक्ष्य ‘पूर्ण स्वाधीनता’ की प्राप्ति बन जायेगा. कांग्रेस ने यह भी स्वीकार किया कि अगर सरकार नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर देगी, तो पुनः असहयोग आन्दोलन प्रारंभ कर दिया जायेगा.

यद्यपि नहेरू रिपोर्ट स्वीकृत नहीं हो सकी, लेकिन इसने अनके महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियों को जन्म दे दिया. सांप्रदायिकता की भावना जो अंदर-अंदर ही थी, अब उभर कर सामने आ गयी. मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों ने इसे फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 1928 ई. की घटनाओं ने पुनः गांधीजी को देश और कांग्रेस की राजनीति के शीर्ष पर आसीन कर दिया. वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के निर्विवाद नेता बनकर प्रकट हुए.

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